लाॅकडाउन को लगे हुए लगभग छै महीने हो गये हैं। ज्यों ज्यों देश में कोरोना की स्थिति विकराल होती जा रही है त्यों त्यों हम इस वाईरस के साथ जीने के आदि होते जा रहे हैं। पहले तो मुहल्ले के चौक चौराहों तक ही जाने में बहुत डर लगता था और अब किसी भी समय बाहर आने जाने में कोई संकोच या घबराहट नहीं होती । रोज की तरह सुबह उठा । योगा प्राणायाम स्नान ध्यान आदि से निवृत हो जब बाजार जाने की तैयारी कर ही रहा था कि मोबाईल की घंटी बजी। मैने कहा -बाबू ज़रा देखना तो किसका फोन है .. ? बाबू जाकर देखता कि उसके पहले ही घर के अंदर से आवाज आई… अरे आपका नहीं मम्मी का फोन बज रहा है पापा.. हर बार की तरह बीच में ही बोल पड़ी बिट्टू । बिट्टू की बात का जवाब दिये बिना ही गेट के बाहर निकल जब स्कूटी स्टार्ट कर ही रहा था कि श्रीमती जी का स्वर गूँज उठा। अरे पापा को ज़रा रोकना.. बोलो कि चौकी, राजनांदगाँव वाले मौसा जी का फोन आया है … पहले बात कर लेंगे फिर जाएंगे। किसी और का नाम सुनता तो शायद नहीं रुकता लेकिन अपने इन छोटे साढ़ू जी का नाम सुनकर अपने आप को रोक नहीं पाया। फौरन गाड़ी बंदकर घर के आँगन में चला आया और कुर्सी पर आराम से बैठकर बतियाने लगा ।
शिक्षा विभाग से जुड़ पेशे से प्रशासकीय अधिकारी रहे मेरे साढ़ू भाई संतोष पाण्डेय जी ने तो पहले घर परिवार की सामान्य बातें की लेकिन कुछ ही देर में गंभीर होते हुए बोले – मैं शीबू से जुड़ी एक बात आपसे साँझा करना बहुत ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि बरसों टीचिंग लाईन से जुड़ रहने के कारण आप लोग ही एक बच्चे की मानसिकता और उसके आचरण को समझ सकते हैं।
कल सुबह जब वह जब सोकर उठा तो अपनी किताबें और बस्ता समेटते हुए अपनी मम्मी से स्कूल जाने की ज़िद करने लगा। उसकी मम्मी ने उसे बहुत समझाया कि अभी कोरोना बीमारी के कारण स्कूल आॅफिस सब बंद है तो तुम कैसे जा सकते हो स्कूल । घर पर ही रहकर तुम्हें पढ़ना लिखना होगा। शीबू मानने का नाम ही नहीं ले रहा था। कहने लगा – आपने उन पुलीस वाले अंकल जी को नहीं देखा .. ? जब सब कुछ बंद है तो वो कैसे दिन भर रोड पर खडे़ रहते हैं क्या वो नहीं थकते… क्या उनको कोरोना नहीं पकडे़गा… । उसकी मम्मी के पास उसकी बाँतों का कोई जवाब नहीं था। मैने जैसे तैसे उसे शान्त करवाया । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई मोबाइल पर कार्टून देखते देखते जैसे ही उसकी नज़र तिरंगा झंडे वाले वीडियो पर पडी़ वह तुरंत खडा़ हो गया और सैल्यूट करने की मुद्रा में जन गण मन गाने लगा और तब तक वह हिला नहीं जब तक की वीडियो पूरा होकर बंद नहीं हो गया। वीडियो बंद होने के बाद एक बार फिर उसने जो रोना शुरू किया तो वह बहुत देर तक चलता रहा। सुबकते सुबकते वह सो गया। नींद में बार बार वह बड़बडा़ए जा रहा था … अब कब स्कूल जाउंगा.. अब कब जन गण मन गा पाउंगा मा… । शीबू का हाल बताते बताते साढ़ू भाई का गला भर आया था।
मैं और अधिक इस विषय पर चर्चा परिचर्चा कर उन्हें दुखी करना नहीं चाहता था। इसलिए मेंने बाद में बात करने का कहकर फोन काट दिया। उनसे बात करने की हिम्मत नहीं बची रहने पर मैने उनका फोन तो काट दिया लेकिन मेरे मन में जो तूफान उठ रहा था उससे भागकर कहाँ जा सकता था। स्कूटी की चाबी खूँटी पर लगाया और मोबाइल को चार्जिंग के लिए लगाकर बिना देर किये एक बार फिर से अपने अनोखेलाल जी को नाक पर चढा़ लिया और पसर गया स्टडी टेबल के सामने रखी आरामकुर्सी पर झाँकते हुए ” चश्में के भीतर से … । “
यह उस बालक पर विद्यालय के दिये हुये संस्कार थे कि राष्ट्रभक्ति उसके अंदर कूट कूट कर भरी हुई थी। जब भी वह खाखी वर्दीधारी को देखता तीो उसे वहीं रुककर सैल्यूट कर ही आगे बढ़ता। बचपन से ही देशसेवा और नैतिक आचरण उसे विद्यालय में मिली गुरूजनों की शिक्षा का असर था।
एक बच्चे के दैनिक जीवन का बड़ा हिस्सा स्कूल जाने पढ़ने लिखने और वहाँ की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेने में गुज़र जाता है। यह सर्वमान्य सत्य है कि जितना प्रभाव माता पिता एवं पारिवारिक जनों का बच्चों पर पड़ता है उससे कई गुना अधिक प्रभाव उनके शिक्षकों तथा विद्यलयीन परिवेश का पड़ता है। इसलिए जितनी जिम्मेदारी पालकों और शिक्षा संस्थानों की होती है उससे कहीं अधिक जिम्मेदारी शिक्षकों की होती है।शिक्षकीय वृत्ति को सिर्फ उदरपोषण का हेतु न समझें वरण समाज में अपनी महत्ता और उपादेयता पर भी विचार करें।
हालाकि वर्तमान के प्रोफेसनलिज्म वाले दौर ने शिक्षकों पालकों और अभिभावकों को जरूरत से ज्यादा व्वहारिक एवं खुदगर्ज बना दिया है। न हीं शिक्षकों को उचित पारिश्रमिक देने वाले संस्थान मिलते हैं, न हीं शिक्षकों का आदर सत्कार करने वाले अभिभावक एवं विद्यार्थी मिलते हैं और न हीं पूरी निष्ठा एवं लगन से पढा़ने वाले शिक्षक ही मिलते हैं। आज की अर्थ को प्राथमिकता देने वाली व्यवस्था में सारे आदर्श और संस्कार उसके एवज में खर्च की जाने वाली राशी पर निर्भर करने लगा है।
आइये शिक्षक दिवस के अवसर पर हम सामूहिक रूप से प्रण लें कि समाज को दिशा निर्देश देने की जो जवाबदारी हमें मिली है उसका गंभीरता से पालन करें। अभिभावकों और विद्यार्थियों को चाहिये कि शिक्षा के बदले में खर्च की जाने वाली धनराशी देकर ही अपने कर्तव्वों की इतिश्री न कर लें वरण उन्हें इतना प्यार और सम्मान दें कि वो विद्यार्थियों की तरफ स्वयं खिंचें चले आएं और पूरी ऊर्जा और निष्ठा से उनका दिशानिर्देश कर सकें जिससे समाज सम्यक रूप से राष्ट्र निर्माण की ओर अग्रसर हो सके।
आज के इस पावन अवसर पर विश्व के समस्त गुरूजनों को प्रणाम करते हुये समाज के सभी वर्ग के लोगों से अपील करता हूँ कि आप भले कुछ कर पाए या न कर पाए हमारे गुरूजनों के लिये परंतु उनका सम्सान हर हाल में करें।
घनश्याम तिवारी