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हिंदी दिवस का आयोजन कब तक ? “जिसको न निज देश और निज भाषा का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक समान है।”- मैथिली शरण गुप्त

ByMedia Session

Sep 14, 2020

हिंदी दिवस की आप सबको शुभकामनाएं।हिंदी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा के आयोजन शुरू हो गए है।14 सितंबर 1918 में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने अधिकारिक तौर पर हिंदी को भविष्य के स्वतंत्र भारत के बनने वाले संविधान की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था।26 जनवरी1950 से लागू हमारे संविधान के अनुसार 15 वर्ष बाद 26 जनवरी 1965 से हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में पूरे देश में लागू होना था। परंतु अनेक राज्यों के विरोध के कारण यह आज तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। हिंदी को देश की अन्य भारतीय भाषाओं के विरुद्ध दिखाकर विरोध किया जाता है। वास्तव में हमारे सामने हिंदी को अंग्रेजी के सामने स्थापित करने की चुनौती है ना कि देश की अन्य भाषाओं के सामने। हिंदी और हिंदी भाषाओं के विरोध की जमीन पर अंग्रेजी हमारे सामान्य जीवन और कार्यकाज सम्मानजनक भाषा बनी हुई बैठी है।इन हिंदी और गैर हिंदी बहनों की लड़ाई में गुलामी के दौरान अपनाई भाषा रानी बन कर बैठी है। इसके विपरीत यह अटल सत्य है कि हिंदी की भारत के जनमानस में स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। आज हिंदी विरोध के आंदोलनों को दक्षिण भाषी प्रदेशों में भी इतना व्यापक जनसमर्थन नहीं मिलता है जितना करूणानिधि या अन्नादुरई के समय में था।इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अब इन प्रदेशों के सामान्य जन भी हिंदी को अपने रोजमर्रा के जीवन में अपनाने लगे हैं।इसमें लोगों का व्यापार,नौकरी, पर्यटन इत्यादि के लिए विभिन्न राज्यों मे आवागमन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पत्रकारिता तथा हिंदी फिल्में और उसके गानों का भी इन राज्यों में हिंदी के प्रचार प्रसार का महत्वपूर्ण योगदान रहा। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को हिंदी सिखाने पर जोर दे रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि हिंदी को देश की अन्य भाषाओं के विरोध में दिखाया जाता है।

एक बहुत बड़ा भ्रम जाल फैलाया जाता है कि विश्व में बिना अंग्रेजी के कार्य नहीं चल सकता है। परंतु वास्तव में यदि देखा जाए तो केवल 5.1% लोगों की मूल भाषा अंग्रेजी है और अन्य अंग्रेजी भाषी लोग 3.9%लोग हैं अर्थात मोटे तौर पर विश्व के 91% लोग अंग्रेजी नहीं इस्तेमाल करते हैं।अमेरिका,कनाडा ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे कुछ देश अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं परंतु अनेक देश जिसमें रूस जापान चीन कोरिया इत्यादि हैं अपने देश की भाषा में ही उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा देते हैं।
अपनी भाषा की बजाय दूसरी भाषा से जुड़ने पर आदमी अपनी नई पहचान ढूंढने लगता है। फिर धीरे-धीरे उसको इस भाषा के इस्तेमाल करने वालों से जुड़ी चीजों पर,उसकी संस्कृत पर गर्व होने लगता है। आज ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम अपने देश में अंग्रेजी की वकालत करें।जहां विश्व के अन्य देश पूरे विश्व में अपनी भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए प्रयास कर रहे हैं वही हम अपने देश में ही हिंदी को पूरी तरीके से स्थापित नहीं कर पाए हैं। यह विचारणीय है कि आज हमें हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों है?अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान देश के प्रभावशाली और संपन्न वर्ग से अपनी नजदीकियां बढ़ाने के लिए इंडो एंगलियन कल्चर को बढ़ाया जिससे उसको राजकाज में व्यापार में सहायता मिल सके। उसने अंग्रेजी को शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विकास की दक्षता की भाषा बनाने का प्रयास किया।अंग्रेजी का प्रयोग करके अभी भी अपने देश में लोग अपने को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते हैं।यहां पर यह देखने की आवश्यकता है कि भारत के स्वतंत्र आंदोलन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण नेता जैसे गांधी, पटेल,नेहरू, अंबेडकर, लोहिया,जयप्रकाश सब विदेश के पढें थे और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे,परंतु यह सभी हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सदैव कार्यरत रहे।यह जानकर आश्चर्यजनक लगेगा कि हिंदी के उत्थान में गैर हिंदी भाषी प्रदेश के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जैसे महात्मा गांधी गुजरात से,विनोवा भावे महाराष्ट्र से, राजगोपालाचारी तमिलनाडु से,रविंद्रनाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस बंगाल से थे।
यदि हम अपने भक्ति काल के साहित्य को देखें तो हम पायेंगे कि हमारे जनमानस में राम और कृष्ण रचे बसे हैं।तुलसीदास, सूरदास,रसखान,जायसी,कबीर और रहीम के काव्य मे हिंदी उर्दू और फारसी से भी मिल गई और इन भाषाओं में भी इन दोनों का गुणगान हुआ। परंतु हिंदी का असली संघर्ष अंग्रेजी से ही है और अंग्रेजी से ज्यादा अंग्रेजियत से है। इस समय मुझे लगता है की हिंदी की सहज स्वीकार्यता में मुख्य बाधा शासक वर्ग से है।शासन करने वाले नेतागण,अधिकारी वर्ग,उच्च शिक्षा, न्यायपालिका, प्रभावशाली मीडिया एवं अन्य नीति निर्धारक वर्ग यह सब मुख्यतः अंग्रेजी के ही पैरोकार हैं।
हिन्दी को उसका सही स्थान तभी दिलाया जा सकता है जब हम उसके लिए कोई विशेष दिन निर्धारित न करके उसे अपनी राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ना होगा वरना यह प्रतीक्षा अनन्त काल की हो जायगी। हमें कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह पंक्तियाँ सदैव अपने मन-मस्तिष्क में रखनी चाहिए।
“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल॥”

राकेश श्रीवास्तव
लखनऊ

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