रोज की तरह सुबह उठकर चाय की चुस्कियों के साथ अपना मोबाइल फोन निहार ही रहा था कि एक साहित्यिक संस्था के वाट्सअप पटल पर पोस्ट किये गये आमंत्रण पर नज़र पडी़ । आने वाले हिन्दी दिवस के लिए साहित्यिक रचनाएं मँगाई गईं थीं। यूँ तो हिन्दी भाषा का जलवा और लेखन का जादू हमेशा ही मेरे सर चढ़कर बोलता रहा है लेकिन सितंबर का पूरा महीना तो चहुँओर हिन्दी ही हिन्दी के साहित्य रस में भीगा हुआ सा लगता है। आमंत्रण पढ़कर कुछ सोचता हुआ मैं मुस्कुरा ही रहा था कि श्रीमती जी ने शायद भाँप लिया मेरा इरादा और बोल पडी़ं – तुम बिना बात के यूँ ही नहीं खुश होते या मुस्कराते हो। ज़रूर कोई विशेष खबर छपी होगी आजके अख़बार में… ।मेंने हिन्दी दिवस के आमंत्रण के बारे में बताया तो मुझे सावधान करते हुए बोल पडी़ं – अपना जितना लिखना हो लिखो.. जहाँ भेजना है भेजो .. मगर अपने दोस्तों वाले ग्रुप में शेयर करने की ज़रूरत नहीं है .. और किसी भी कार्यक्रम के लिए किसी को बोलने मैसेज करने की और बीच में पड़नें की ज़रूरत नहीं है .. संभालते बनता है तो अपना विभाग अपना क्षेत्र संभालो … और बहुत से लोग हैं… उन्हें अपना विभाग संभालने दो…. । मेरे हर एक साहित्यिक क्रियाकलाप पर हमेशा ही सहयोग करने वाली अपनी अर्धांगिनी की इस तरह की बातें सुनते हुए मैं हैरान रह गया। आखिर ऐसा क्या हो गया …. एक साहित्य अनुरागी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य साहित्यिक व्यक्ति को हिन्दी भाषा संबंधी कार्य में सम्मिलित होने के लिए सीधे सीधे मना कर दिया गया … ? मैंने फौरन अपने अनोखेलाल जी को नाक पर चढा़या और सोचते हुए कुछ लगा झाँकने चश्में के भीतर से …… ।
वैसे तो साहित्य , संगीत और ललित कलाओं से जुड़ा होने के कारण साल भर ही अलग अलग तरह के सांस्कृतिक आयोजनों से जुड़ा रहता हूँ मगर सितंबर का महीना लगते ही मन कुलबुलाने लगती है। बचपन से ही सितंबर का पूरा महीना हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस मनाते हुआ बीता है। चाहे अन्तर्शालेय वाद विवाद हो , या पिताजी के माईन्स आॅफिस की तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता। चाहे बैंक वालों की निबंध प्रतियोगिता हो या अलग अलग बैनर वाले समितियों की चर्चागोष्ठियाँ या फिर हमारे विद्यालयों में आयोजित होने वाले हिन्दी दिवस समारोह … सभी में सक्रियता से भाग लेते रहा हूँ । यही कारण है कि जब भी सितंबर का महीना आता है तो मन कुलबुलाने लगता है चाहे जैसे भी हो इस पूरे महीने के दौरान किसी न किसी रूप में हिन्दी दिवस समारोह में शिरकत करूँ ।
यह अलग बात है कि मैने अपनी स्कूल स्तर की पढा़ई विज्ञान विषय के साथ की है लेकिन कभी भी लोगों ने मुझे विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में देखा ही नहीं । बात बात पर या यो कहें कि हर बात पर कुछ न कुछ लिख देने या कुछ न कुछ बोल देने की आदत के कारण स्कूल वाले और मोहल्ले वाले सारे लोग आज भी मुझे मेरे नाम से कम और कविवर के नाम से ज्यादा जानते हैं।
काॅलेज में तो मेरे वारे न्यारे हो गये। खैरागढ विश्वविद्यालय का शानदार कैंपस और तरह तरह की कला का अभ्यास और प्रदर्शन करते मेरे साथी। मैने संगीत का अभ्यास तो किया ही किया साथ ही साहित्य का गंभीर अध्ययन भी किया। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में पधारे साहित्य के बडे़ बडे़ हस्तियों की खूब सेवा की और बहुत कुछ सीखा भी।
सीखने और काॅलेज में लिखने तक का सिलसिला तो ठीक रहा परंतु जब रोजी रोटी की तलाश में बाहर निकला और स्कूल की नौकरी करनी शुरू की तो साहित्य और लेखन का कुछ दूसरा ही पक्ष दिखाई देने लगा। मेरा किसी दूसरे विषय के लिए नियुक्त होना मेरे रचनाकर्म के लिए भला कैसे बाधक हो सकता था … ? मगर हुआ ऐसा ही और तब तो मानों बम का ही विस्फोट हो गया जब शिक्षकों की कमी के दौर में मुझे हिन्दी की कक्षाएं पढा़ने को दे दी गईं ।
मैं साहित्य का साधक रहा था इसलिए मेरे लिए तो यह अत्यंत गौरव का विषय था। मैंने पूरी निष्ठा , लगन और मेहनत से न सिर्फ बच्चों को पढा़या बल्कि उन्हें संतुष्ट भी किया। हाँ यह अलग बात है कि मुझे हिन्दी की इस तरह से सेवा करने की कीमत अपने सहयोगी साथियों के निंदा तथा क्रोध का सामना कर के चुकाना पड़ा ।
मुझे यह समझ नहीं आता कि क्या उसी व्यक्ति को कविता कहानियाँ लेख आदि लिखने का अधिकार है जिसने उस विषय विशेष में बड़ी बडी़ डिग्रियाँ हासिल की हों। क्या किसी भी विषय विशेष से जुडा़ व्यक्ति रचना नहीं कर सकता। तमाम तरह के सवालात मन में आ आकर मुझे बेचैन कर देते थे।
मेरे एक मित्र जिनको लोग मनमौजी सर भी कहते हैं ने समझाते हुए कहा – आप भी कहाँ की बात लेकर बैठ गए .. ? कोई आपका हाथ पकड़कर लिखना थोडे़ ही बंद करवा सकता है। आप तो खूब लिखिये और जहाँ मौका मिले उसे सुनाइये भी और यही नहीं अपनी रचनाएँ लिख लिख कर स्कूल की दीवारों पर लगाइये भी। मुझे अपने उस मनमौजी मित्र की बाँतें सौ फीसदी सही लगी और बिना लोगों की परवाह किये लगातार लिखता ही रहा। हालाकि इस तरह लिखते रहने की कीमत मुझे कई विभागीय स्पष्टीकरण पत्रों, सुझाव पत्रों और शिकायती पत्रों को ले लेकर चुकानी पडी़। मुझे आज भी इस बात का अफसोस है कि करीब चार साल पहले पुस्तक प्रकाशन की अनुमति हेतु दिया गया निवेदन पत्र आज भी हमारे आदरणीय आला अधिकारियों की टेबल की धूल चाट रहा होगा या कब का फँटकर किसी कूड़े के ढेर में जा मिला होगा।
विद्यालय में ज़रूर अपने कुछ साथियों के कोप का भाजन बनने के बाद से मैंने अपने आप को सिमित कर लिया लेकिन साहित्य कर्म रुका नहीं वह आज भी अनवरत जारी है। भले मुझ पर हिन्दी के शिक्षक या प्रोफेसर होने का टैग नहीं लगा है लेकिन मेरे अंदर का साहित्य वाला रहमानी कीडा़ हरदम कुलबुलाते रहता है और रचनाएं लिखती चली जाती हैं लगातार … ।
पहले तो रचनाएं लिखकर उसे पाठकों तक पहुँचाने का एकमात्र साधन था उसे स्कूल की दीवार पर चिपका देने का क्योंकि मेरे प्रिय मित्रों की कृपा से अख़बारों या किसी गैर स्कूली पत्रिकाओं में छपवाने की मनाही थी। बदलते वक्त के साथ जबसे सोशल मीडिया से हम सब जुड़ गये हैं रचनाकारों के लिए पाठकों का तो टोटा ही नहीं रहा है। खूब लिखो और पोस्ट करो। एक बात और आजकल लोकसदन साहित्य मंच सरीखे कुछ सोशल मीडिया प्लेटफार्म और अख़बार भी हैं जो हिन्दी भाषा के साधकों की रचनाएं प्रकाशित कर उन्हें व्यापक प्रोत्साहन और सम्मान देते हैं।
आज की स्थिति में मेरा लेखन कार्य पहले की अपेक्षा और भी तीव्र गति से संचालित है और वह भी किसी भी रोक टोक की परवाह किए बिना । यह मैं शत प्रतिशत जानता हूँ कि हिन्दी भाषा और साहित्य किसी के भी विशेषाधिकार का विषय नहीं है। जितना बाकी सभी पढे़ लिखे डिग्री धारी विद्वत जनों का हक है हिन्दी पर उतना ही है इस हिन्दी के सेवक का भी । इसीलिए मैं यह कहता हूँ कि मैं तो लिखता हूँ और लिखता ही रहूँगा लगातार .. क्योंकि हिन्दी मेरे लिए सिर्फ एक भाषा ही नहीं है वह मेरी आत्मा है कयोंकि … मेरे रग रग में बसी है हिन्दी … ।