कितना दुर्भाग्य है कि आपकी जो राष्ट्रभाषा होना चाहिए वो ही आज एक ‘फिकरे’ के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। आज भारत में सरकारी स्तर पर देश भर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है । यही सरकारी आयोजन हिंदी की असल दुर्गति का कारण है । ‘ एकता में अनेकता’ बनाये रखने के नाम पर देश आजादी के 73 साल बाद भी अपनी राष्ट्र भाषा की व्यवस्था नहीं कर पाया है । कांग्रेस पूरे समय धर्मनिरपेक्षता का छाता तानकर चलती रही और भाजपा भी बीते छह साल से मोर को दाना चुगा रही है। यानि हम अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी की हिंदी कर रहे हैं। हिंदी करने का मतलब आप सब जानते हैं न ?
हिंदी को लेकर आज मै न अतीत में जाकर आपको इतिहास के पन्ने खोलकर दिखने जा रहा हूँ और न इसके लिए किसी को जिम्मेदार ठहराने जा रहा हूँ। ये काम तो लगातार चल ही रहा है। मेरा तो सवाल है की आखिर हम बिना राष्ट्रभाषा के आखिर बीते सात दशक से जी कैसे रहे हैं ? हमारे पास अपना सब कुछ है एक भाषा को छोड़कर। आखिर हम क्यों बिना राष्ट्रभाषा के एक विश्वगुरु बनना चाहते हैं ? क्या कोई ऐसा राष्ट्र विश्वगुरु बन सकता है ,जिसकी अपनी ही कोई राष्ट्रभाषा नहीं हो ?
मेरा वैश्विक ज्ञान सीमित है और मुझे इसको लेकर कोई ग्लानि भी नहीं है । जब इस देश को अपनी राष्ट्रभाषा न होने को लेकर कोई ग्लानि नहीं है ,तब भला एक सामान्यज्ञान को लेकर मुझे क्यों ग्लानि होने लगी ? ग्लानि इस देश के भाग्यविधाताओं को होना चाहिए । वे किस दल के हैं,कौन सा दुपट्टा डालते हैं,?क्या खाते हैं,क्या पीते हैं ? इन सब सवालों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मेरा सवाल तो इकलौता है कि हमारी कोई राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है ? इस देश में कितनी भाषाएँ हैं और कितनी लुप्त -विलुप्त हो गयीं, ये सब गूगल बाबा बता देंगे ,लेकिन इस सवाल का जबाब गूगल नहीं दे सकता कि भारत की अपनी कोई राष्ट्रभाषा क्यों नहीं है ?
मुझे लगता है कि जिस देश को राष्ट्रभाषा की जरूरत नहीं है उस देश को और किसी भी चीज की जरूरत भी नहीं होना चाहिए। एक विधान,एक निशान का नारा भी बेमानी है। इस देश कि राष्ट्रभाषा से वंचित करने वालों के चेहरे उजागर होना चाहिए। देश के लिए एक भाषा का चयन न कर पाने वाला देश देश के भविष्य का निर्धारण कैसे कर रहा है ?मुझे पता है कि मेरे सवालों के जबाब में अनेक उद्भट विद्वान बता देंगे कि दुनिया में कितने देशों की राष्ट्रभाषा नहीं है फिर भी वे तरक्की के रस्ते पर अग्रसर है। लेकिन कोई ये नहीं बताएगा कि दुनिया में कितने देश हैं जो अपनी राष्ट्रभाषा के बल पर दुनिया में अग्रणीय हैं।
देश के पहले प्रधानमंत्री से लेकर देश के मौजूदा प्रधानमंत्री तक में इतना साहस क्यों नहीं है कि वे देश को एक भाषा दे सकें ? क्या सचमुच देश को एक भाषा देने से देश की एकता-अखंडता खतरे में पड़ जाएगी ? क्या देश में भाषा के सवाल पर गृहयुद्ध छिड़ जाएगा ? शायद नहीं ,हाँ एक भाषा के आने से देश की एकता और प्रगाढ़ हो जाएगी ऐसा सोचने वाले कम हैं और जो ऐसा सोचते हैं वे दुर्भाग्य से देश के भाग्यविधाता नहीं हैं। अपनी राष्ट्रभाषा का निर्धारण किये बिना हम आखिर कब तक काम चलते रहेंगे। दुनिया में हमारी ही तरह अनेक देश बहुभाषा-भाषी और बहु संस्कृति वाले हैं लेकिन उनकी एक राष्ट्रभाषा है और उसको लेकर कोई विवाद नहीं है।
देश में भाषाई एकता के लिए फार्मूले तो बहुत बनाये जा चुके हैं ,लेकिन किसी फार्मूले से राष्ट्रभाषा नहीं निकली। अब समय है कि हम अपना नफा-नुक्सान भूलकर राष्ट्रभाषा का निर्धारण करें। क्षेत्रीय भाषाओँ के संरक्षण ,संवर्धन का काम अपने ढंग से राज्य सरकारें करें ,भाषा विज्ञानी करें लेकिन राष्ट्र के लिए एक भाषा का निर्धारण सरकार करे। सरकार देश के बाहर और भीतर अपनी भाषा में बात करे । वैश्विक संबंध बनाने के लिए दुनिया की हर भाषा का ज्ञान हमारे यहां के लोगों को भी अर्जित करने की छूट है ,उसे बरकरार रखा जाये लेकिन राष्ट्रभाषा के मुद्दे को अब हिंदी पखवाड़ा मानकर देश की आँखों में धूल न झोंकी जाय।
भाषा के सवाल पर अनंत बहस हो सकती है,होती रहती है,होती रहेगी लेकिन भाषा यानि राष्ट्रभाषा का सवाल सुलझेगा नहीं ,क्योंकि सत्ता नहीं जानती कि सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।मनुष्य को समपूर्ण बनाने के लिए राष्ट्रभाषा भारत के हिस्से में कब आएगी ,कोई नहीं जानता। हमसे पहले की पीढ़ी भी राष्ट्रभाषा के जन्मने की प्रतीक्षा में फ़ोत हो गयी ,हमारी पीढ़ी भी समापन के कगार पर है । हमारी आने वाली पीढ़ी को भी राष्ट्रभाषा मिल पाएगी या नहीं ये कहना कठिन काम है।
@ राकेश अचल