हिन्दी हूँ मैं, मेरा वजूद ही कहाँ अब अपने ही घर में।
पराई हो गई हूँ, अब मैं अपनों के बीच में।
सब कर रहें हैं मेरा तिरस्कार, बोलो कहाँ जाऊं मैं किस घर में।
पली मैं इसी धरा में, बढ़ी मैं इसी धरा पर।
फिर भी ना कोई मेरा नाम ना पता है।
अपने हक के लिए लड़ रही हूँ मैं।
ना ही कोई मेरा हुक्मदार है,जो मेरे अस्तित्व के लिए लड़े।
सोचती हूँ कभी-कभी मिट ना जाऊं मैं कभी।
हिन्दी हूँ मैं,इसलिए अपमानित हो रही हूँ ,अंग्रेजी के जैसा सम्मान कहाँ है मेरा।
स्वंत्रता की चिंगारी भड़काने वाली,
जनमानस को जगाने वाली।
नयी चेतना भर कर साहित्य की पटल
पर खरी उतरने वाली।
आज अपनी ही रक्षा के लिए अपनों
से दुहाई मांग रही हूँ।
संकुचित-सिमटी सी जा रही हूँ मैं,
खुद के वजूद को नयी बचा पा रही हूँ मैं।
महाकवि भारतेन्दु आज तेरी पंक्तियों की याद आयी-“निज भाषा उन्नति अहैं ,सब भाषा को मूल,बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै ना हिय के शूल।”
ये तेरे लोकप्रिय वाक्य मन के विषाद को हल्का कर देते है।
जी लेती हूँ मैं, तेरे इन्हीं शब्दों में।
खुद को संवार लेती हूँ मैं इन्हीं शब्दों में।
पर आज देख मेरी दुर्गति क्या है?
पत्र-पत्रिकाएं , काव्य-कविताएं,
कहानी,उपन्यास, नाटक को लिखने
वाले।
मेरे भाषा मे लिखने से कतराते है।
इससे तो अच्छा मैं आजादी से पूर्व अपने को गौरवान्वित महसूस करती थी।
जब आजादी के लिए अनेक लेखक,कवि, नाटककार भारत की स्वतंत्रता के लिए मेरे को आधार बनाकर एकजुट हो कर लड़ रहे थे।
बस अन्त में यही कहना चाहूँगी
ना भूलों ना बिसराओ मुझे।
मैं अपनी हूँ, गले लगाओ मुझे।
(ज्योति सिंह) उत्तर प्रदेश जिला-देवरिया