गुरु अनुभूति, गुरु साध्य, गुरु से बड़ा ना कोई ज्ञानवान।
सबको एक सांचे में ढाल कर नव जीवन देता।
हर दुर्गुणों को परिष्कृत कर सद्बुध्दि का भंडार भर देता।
गुरु ही लौकिक और पारलौकिक ज्ञान का संचार कर्त्ता।
बिना उसके ज्ञान के जीवन के उद्देश्य कहाँ पूरे होते है।
उसे पाकर ही तो जीवन सम्पूर्ण बनता है।
गुरु-शिष्य का नाता तो जन्म-जन्मांतर का है।
ना इसमें कोई मोल-भाव ना कोई ऊँच-नीच।
शिष्य तो एक कच्ची मिट्टी का लोंदा।
गुरु उसे अपनी ज्ञान रूपी चाॅकी पर चलाकर उसे एक सुनहरा आकार देता है।
चाहे वो हो कबीर के गुरु रामानंद या तुलसीदास के गुरु नरहरीदास।
मीरा के तो रैदास गुरु जग से त्रारण वाले।
पाश्चात्य के गुरुओं में सुकरात, प्लूटो, अरस्तू के नाम आते।
सुकरात के शिष्य प्लूटो और प्लूटो के शिष्य अरस्तू जो जीवविज्ञान के जनक माने जाते।
अरस्तू का शिष्य सिकन्दर जो सोलह वर्ष की आयु में विश्व विजेता बन इतिहास रचने वाला।
गुरु शब्द ही दो अनुपम अक्षर का मेले है।’गु’ का अर्थ अंधकार और ‘रु’ का अर्थ प्रकाश।
जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये वही तो गुरु श्रेष्ठ कहलाता है।
शिक्षा जगत में आज कितनी विषमताएं पायी जाती है।
रहा न वो कल वाला गुरु जो आज शिक्षक कहलाता है।
कुछ तो अच्छे हैं तो कुछ तो खानापूर्ति जैसे काम चलाते है।
अपने हित के लिए बच्चों का समय खा जाते हैं।
अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य आज के परिवेश ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते है।
एकलव्य को निषाद पुत्र जानकर जिसने शिष्य बनाने से इनकार कर दिया।
एकलव्य के मन मे द्रोणाचार्य के प्रति इतनी भक्ति जागी की।
द्रोण की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे।
एकलव्य धनुर्विद्या में इतने पारंगत हो गये कि उनकी श्रेष्ठता कही अर्जुन ज्यादा ना हो जाए इसलिए द्रोणाचार्य ने कटु चाल चली।
गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया।
कही ना कही ये आज की शिक्षा का वास्तविक सच है।
कौन है गुरु,कौन है शिष्य ये आज के परिवेश में समझ पाना मुश्किल है।
शिष्य अपनी उदंडता की हदे पार कर रहा है।
शिक्षक का कर अपमान वो खुद को होशियार बता रहा है।
यही तो आज के शिक्षा जगत का माहौल है जहाँ सब अपने-अपने को श्रेष्ठ बता रहे।
गुरु का मार्गदर्शन पाकर ही मनुष्य
मानव से महामानव बनता है।
यही अकाट्य सत्य है।
(ज्योति सिंह )उत्तर प्रदेश जिला-देवरिया