
विश्वेश्वर नहीं रहे. एक ऐसे कथाकार, लेखक जिन्होंने अपनी एक कहानियों की किताब , मुझे अपने हाथों से दी थी और उसकी कहानियां पढ़ कर के मैं उनके कद को समझने की कोशिश कर रहा था. एक कहानी “दबा हुआ मस्तिष्क”पढ़ कर मुझे लगा उनके कद के सामान कोई लेखक हमारे आसपास नहीं है. विशेश्वर एक जमीन से जुड़ा हुआ, शब्दों का एक ऐसा फनकार लेखक है जो हमारे आसपास विरल है। “दबा हुआ मस्तिष्क” विश्वेश्वर की बहुचर्चित कहानी थी जो तत्कालीन समय की महत्वपूर्ण पत्रिका सारिका में प्रकाशित हुई थी. और जिसकी बड़ी ही चर्चा थी. इस लंबी कहानी में उन्होंने बताया था किस तरह से एक पूंजीपति पैसे वाले एक शख्स को उसकी मजबूरी का लाभ उठा कर के कैद कर लेता है और उससे प्रताड़ित करके लिखवाया जाता है. अपने मन माफिक लिखवाने के लिए किस जगह उसे टॉर्चर किया जाता है यह कहानी लगभग 35 वर्ष पूर्व मैंने पढ़ी थी. लेकिन वह कुछ इस तरह स्मरण रह गई कि कभी बिसार नहीं पाया.
यह एक बड़े ही महत्त्व और सौभाग्य की बात थी कि हमारे कोरबा औद्योगिक नगरी में विशेश्वर का पदार्पण हुआ. उन्होंने एक पत्रकार के रूप में कोरबा में आकर, हमारे ही मोहल्ले के पास मकान लिया और अपनी एक हीरो मैजिस्टिक दो पहिया वाहन से चला करते थे.उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ा करता था और पत्रकारिता में प्रवेश कर चुका था. मैं उन्हें अक्सर देखता वह एक प्रौढ़ व्यक्तित्व जो दूर से ही आकर्षित करता था. कुर्ता पाजामा पहने हुए विशेश्वर एक अलग ही व्यक्तित्व के स्वामी थे. जो मुझे साहित्यिक अभिरुचि होने के कारण आकर्षित करते चले गए. साहित्य की दुनिया की पत्र पत्रिकाएं तो हमारे आसपास थी मगर कोई राष्ट्रीय स्तर के महत्व का लेखक हमारे आसपास नहीं था. एक दिन उन्होंने बातों बातों में मुझे बताया कि उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और जिन पत्रिकाओं उस किशोर वय उम्र में हम लोग बड़े ही चाव से लगाओ से पढ़ा करते थे, उनमें वे कई दशक पहले छप चुके हैं. मैं आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता रहा वह मेरे सामने एक किंवदंती के रूप में अविश्वसनीय बन कर खड़े थे. मगर जब उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे दी तो मैं ने उन्हें पढ़कर महसूस किया कि सचमुच विशेश्वर…. विशेश्वर हैं! उनके विराट कद का उनके लेखन दक्षता के सामने हमारे आसपास तो सभी बौने ही हैं.
विशेश्वर रायपुर से प्रकाशित दैनिक महाकौशल के कोरबा में संवाददाता थे और लगभग 2 वर्षों तक उन्होंने एक संवाददाता के रूप में पत्रकारिता हमारी ही मोहल्ले में रहते हुए की।
एक दिन मैंने सुना विशेश्वर संपादक हो गए हैं और योगेश्वर सोनी के नटराज प्रिंटिंग प्रेस से एक सप्ताहिक अखबार का प्रकाशन करने जा रहे हैं.
मैं उन दिनों शहर के प्रथम सप्ताहिक वक्ता का संवाददाता बन चुका था और निरंतर लिख रहा था हम 4-5 मित्रों की एक टोली हुआ करती थी सुदर्शन निर्मले ने एक युवा से मिलवाया था यह थे रमेश पासवान जिन्होंने बाद में मुझे बताया कि वह विश्वेश्वर शर्मा से मिलकर के नटराज प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित होने वाले सप्ताहिक कोरबा कोबरा के लिए संवाददाता के रूप में जुड़ गए हैं. रमेश का बचपन कोल क्षेत्र सुभाष ब्लॉक में बीता था यहां के कई नेताओं से उनका मनोगा ठाकुर जैसे अच्छा संपर्क था और भीतर की सारी महत्वपूर्ण खबर उन्हें हो जाती थी। वे अक्सर मुझे कोल इंडिया की आसपास की खबरें बता दिया करते थे ऐसे में जब वे कोरबा कोबरा के संवादाता बने विशेश्वर से जुड़े तो मुझे लगा कि या एक अच्छा मौका उसे मिल गया है. विश्वेश्वर जैसे कलम के दिग्गज के साथ पत्रकारिता में बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। कोरबा कोबरा का विमोचन अग्रसेन भवन में आयोजित हुआ था मुख्य अतिथि साडाध्यक्ष उमाशंकर जायसवाल थे, मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि उस कार्यक्रम में हम युवाओं ने भी शिरकत की थी. रमेश पासवान के कुछ समाचार अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित हुए थे और वह बहुत खुश था.
कोरबा कोबरा का प्रकाशन नगर के लिए अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना थी. यह समय 1988 के आसपास का था टेबुलाइट साइज का आठ पृष्ठ का न्यूज़ प्रिंट में प्रकाशित होने वाला यह अखबार अपने आप में नगर का आईना बन चुका था।
एक लेखक के नाते विश्वेश्वर मुझे हमेशा एक चुंबकीय भाव से आकर्षित किया करते थे. धीरे-धीरे कोरबा कोबरा एक अखबार के रूप में महत्वपूर्ण संस्था बन चुका था शासकीय विज्ञापन मिलने प्रारंभ हो गए थे और एक स्थापित संस्था का स्वरूप ग्रहण कर चुका था ऐसे में एक दिन सुनने में आया कि योगेश्वर सोनी से उनकी अनबन हो गई है और उन्होंने संपादक पद से त्यागपत्र देकर के अपने आप को अलग कर लिया है.
कल शेष