डॉ टी महादेव राव
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय
मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में सीखता है, सीखते ही चला जाता है, यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। लेकिन बाल्यावस्था और किशोरावस्था में जो शिक्षा ग्रहण करने और विद्या अध्ययन का समय होता है, उस जीवन में गुरु की महत्ता अधिक और अनिवार्य होती है। जीवन के कई पड़ावों में तरह तरह के अध्यापकों से व्यक्ति का सामना होता है। ग्राह्यता निर्भर करती है शिक्षकों के शिक्षित करने की विधि पर , उनके पढ़ाने के ढंग और शैली पर।
मेरे जीवन में भी कई शिक्षकों ने पढ़ाया, मैं उनसे ज्ञानार्जन करता रहा। बहुत सारे गुरुजनों में अगर आजीवन याद रखा हूँ या उन्हें कभी नहीं भूला हूँ तो वे हैं मेरी हिन्दी शिक्षिका, गुरु, पथप्रदर्शिका श्रीमती पी सूर्यकांतम जी। पत्थर की लकीर की तरह पूज्यनीया गुरु महोदया हमेशा मेरे दिलो दिमाग पर हैं और रहेंगी।
जब मैं कक्षा आठवीं तक तेलुगू माध्यम से पढ़ने के बाद परिस्थितियों ने मुझे बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में पढ़ने पर विवश किया। उस समय मुझे हिन्दी के अक्षर और बारह खड़ी के अलावा कुछ नहीं आता था। हिन्दी की शिक्षा के लिए मुझे श्रीमती पी सूर्यकांतम जी के पास भेजा गया। सुबह आठ से दस और शाम पाँच से सात बजे तक उनके यहाँ हिन्दी सीखने जाता था। वे इतने मनोयोग और सरलता से समझातीं, सिखातीं, अभ्यास करातीं कि सीखना आसान होता गया और उनकी शिक्षा का ही परिणाम था कि मैं हिन्दी माध्यम
में कक्षा नौवीं में भर्ती हुआ और वार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में प्रथम आया। फिर आगे जाकर उनकी शिक्षा से हिन्दी के प्रति उत्पन्न प्रेम और रुचि
ही कारण रहा कि स्नातक स्तर पर हिन्दी विशेष विषय के रूप में लेकर पढ़ा और फिर हिन्दी में स्नातकोत्तर और शोध भी किया।
गुरु, शिक्षिका श्रीमती सूर्यकांतम जी ही कारण है कि हिन्दी में रचनाएँ करता हूँ 1978 से और अब तक देश की बड़ी छोटी पत्रिकाओं में स्थान पाता रहा हूँ। आठ हिन्दी पुस्तकों का प्रकाशन और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होना यह सारा उनकी भिक्षा है हिन्दी शिक्षा के रूप में। उनका डाला गया नींव ही कारण है जिस पर एक छोटा मोटा महल खड़ा किया है मैंने। ऐसे अद्वितीय गुरु को आजीवन कोई कैसे भूल सकता है और मैं भी नहीं भूला और कभी भूल भी नहीं पाऊँगा।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवोमहेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रहमा तस्मैश्री गुरवे नमः