बहुत ही दुःखद कादम्बिनी है,और नंदन जैसी उच्चस्तरीय पत्रिका का बन्द होना । इस खबर को सुनकर ,पढ़कर मुझे ऐसा लगा जैसे कि मेरे अभिभावक मुझसे सदा सदा के लिए दूर चले गए ।
बचपन में जब नंदन घर में आता तो भाई बहनों में छीना झपटी शुरू हो जाती थी ।सबको पहले पढ़ना होता था। काम्बिनी के लिए हम स्कूल लाइब्रेरी जाते । बड़े हुए तब पुरानी कादम्बिनी मांग कर ले आते फिर पढ़ कर वापिस कर दे देते थे । जब हम दसवीं ग्यारहवीं में पढ़ते थे , तो हमारी हिंदी टीचर अरेंजमेन्ट की क्लास में कादम्बिनी ,साप्ताहिक,हिंदुस्तान ,धर्मयुग आदि लाकर पढने को देती ।तब हमें जो अच्छी लगती वो कहानियां ही पढ़ते । टीचर कहती इससे भाषा सुधरेगी । कालेज में गए तो शरद चंद्र
रविन्द्र नाथ प्रेमचन्द्र जी की किताबें पढ़ने को मिली।
तब पत्रिकाओं की सम्पादकीय को तो कभी पढते ही नहीं थे । समझ में ही नहीं आती थी। इतना फायदा अवश्य हुआ कि हमारी भाषा में बहुत सुधार हुआ।शब्द कोश और शब्द ज्ञान बढ़ा। लेखन में रुचि जागी ।
राष्ट्र भाषा को ऊंचाई तक ले जाने में कादम्बिनी का विशेष योगदान रहा है।
समसामयिक मुद्दों का विवेचन ,विश्लेषण बौद्धिक क्षमता
की धार बढाता है।यह सब हमने कादम्बिनी से सीखा।
आपको एक सच्चाई बता दूँ ,जब मैंने लिखना शुरू किया और इस क्षेत्र में
मेरी अलग पहचान बनी ।
सन 1971 से नवभारत जैसे स्तरीय अखबार में समसामयिक विषयों पर आलेख, कहानियों लगातार 1994 तक प्रकाशित होने का श्रेय मैं कादम्बिनी को ही देती हूं।
मेरे पास पाठकों के ढेर सारे प्रशंसा पत्र मिलते थे । जिनमें कई मेरे विद्यार्थियों के भी होते थे। ज्यादातर लोगों की मुझसे यही शिकायत होती कि आपके आलेखों कहानियों की भाषा बहुत उच्च स्तरीय होती है । जो कालेज स्तर की लगती है। आप आम बोलचाल के शब्दों में ही लिखोगे तो हमारे लिए अच्छा रहेगा।
मेरी लेखन शैली में यह कादम्बिनी के
प्रभाव को ही दर्शाता है ।
कादम्बिनी के शोक संतप्त परिवार के प्रति हृदय से पूरी सहानुभूति सहित.
….. डॉ चन्द्रावती नागेश्वर
रायपुर छ. ग.