रामानंद दोषी के बाद प्रधान संपादक रहे राजेन्द्र अवस्थी ने कादम्बिनी को न सिर्फ लोकप्रिय पत्रिका बनाया, अपितु राष्ट्रभाषा के उन्नयन में सर्वाधिक योगदान देने वाला भी सिद्ध किया। इसके बंद होने पर देश का सम्मान भी कम होगा। आकार बड़ा करना भी अच्छा लगा था। शोभना जी ने समसामयिक विषयों का समाहार कर कादम्बनी को अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया। फिर भी न जाने क्यूं इसे किसकी नजर लग गयी।
स्वतंत्रता काल के आरम्भ में हिन्दी पत्र- पत्रिकाओं की तुलना में अंगरेजी की संख्या लगभग दोगुनी थी। हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान जागा। फलस्वरूप महान साहित्यकारों और देशभक्तों में बहुभाषी एवं बहुधर्मी देशवासियों को राष्ट्रवाद के एक सूत्र में बांधने के लिए नई हिन्दी पत्र- पत्रिकाओं के प्रकाशन में रुचि बढी। नतीजतन बीसवीं सदी तक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अंगरेजी से न सिर्फ 75% अधिक हो गई, बल्कि हिन्दी बोलने और लिखने वालों का अनुपात अहिन्दीभाषी राज्यों में भी बढने लगा। परंतु आजादी के लम्बे समय बाद भी उच्च तकनीकी शिक्षा में हिन्दी की पुस्तकें न आने से उच्चपद व मोटी आय के कामी नयी पीढी के छात्र-छात्राओं का रुझान अंगरेजी की तरफ बढ गया। जो न सिर्फ हिन्दी की शीर्ष पत्रिकाओं की संख्या घटाने लगा, अपितु राष्ट्रभाषा के लिए घातक भी होगा। हमें देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी श्रेष्ठ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं को संबल प्रदान करना चाहिए।” निज भाषा उत्तम अहै••• ” सूत्र को साहित्य-जगत में स्थापित करने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र के महान त्याग ( अपनी तथा पुरखों की धन- संपत्ति भारत को एकसूत्र में बांधने वाली सहज बोधगम्य राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के संकल्प) को जानने के बाद देश के बहुसंख्यक हिन्दीभाषियों को कुछ तो ग्लानि होगी कि वे टीवी और इन्टरनेट की अंधी दौड में उच्चस्तरीय हिन्दी पत्रिका ‘ कादम्बिनी ‘ की राष्ट्रभाषा के उन्नयन में भूमिका को भूल गये हैं। ‘ जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाने वाली विश्व की अद्वितीय भाषा खडी बोली हिन्दी ‘ को एक पूर्ण शब्दकोश देने वाले छायावाद के प्रणेता महाकवि जयशंकर प्रसाद ने उन्नत हिन्दी- साहित्य के अपने समकालीन सर्जकों को प्रोत्साहित करने में पैतृक संपत्ति का बडा भाग विसर्जित कर दिया, जबकि अपनी भयंकर व्याधि में उस धन का उपयोग प्राणरक्षा के लिए नहीं किया। आज भी प्रसाद-मंदिर परिसर के भवन के मुख्य द्वार के ऊपर नागरी प्रचारिणी सभा के संगमरमर के शिलापट्ट ( तत्कालीन शिखर साहित्य संस्था) की ओर से प्रसाद जी के सम्मान में लिखी पंक्ति ” हिन्दी की नवीन शैली के प्रणेता ” द्रष्टव्य है। भाषा व साहित्य के अध्येता यह जानते हैं कि अपनी 33 कृतियों में उन्होंने हिन्दी शब्दावली का ही पूर्णतः प्रयोग किया है, अन्य किसी भाषा का शब्द ग्रहण नहीं किया है।सारी विशेषताओं के बावजूद खडी बोली हिन्दी की भाषा, वर्तनी और शब्द- भण्डार को समृद्ध करने में शिवपूजन सहाय, निराला, पंत, महादेवी वर्मा आदि का योगदान भी अविस्मरणीय है। आज न सिर्फ प्रादेशिक संपर्क की दृष्टि से अपितु देश के सम्मान और सुदृढीकरण के लिए भी कादम्बिनी व नंदन जैसी श्रेष्ठ एवं ज्ञानवर्धक पत्रिकाओं की स्वीकार्यता एवं संजीवनी प्रदान करने की महती आवश्यकता है।
- मधुसूदन आत्मीय
नीमतल्ला रोड, मुंगेर-811201