बचपन की अनोखी याद से मिलवाती हूँ आपको,
कैसा था मेरा गुलक बताती हूँ आपको,
जब भी मेरे घर मिट्टी की बर्तन वाली आती,
मेरी जिद बेक़ाबू हो जाती,
माँ सुनो न मेरे लिए एक गुलक ले लो न,
माँ कहती क्या करेगी तू इस गुलक का,
पैसे कहाँ हैं तेरे पास,
मैं कहती जब होंगे डाल दिया करूंगी,
पैसे जमा कर के अपने पसंद का कुछ लिया करूँगी,
और दशहरा आ रहा है न,
मेले के लिए भी तो पैसे चाहिए न,
अभी से जमा करूँगी गुलक भर जाएगा,
इतने पैसे हो जाएंगे कि मिठाइयों का थैला भर जाएगा,
माँ को बातों बातों में मेला घुमाती,
गुलक के लिए इतनी बातें बनाती,
माँ थोड़े से चावल दे दो न,
और चाची से एक गुलक ले लो न,
अंततः गुलक मिल ही जाता,
मैं उसमे एक – एक रुपया डाला करती,
पर अफसोस डालने से ज्यादा छुरी की मदद से निकला करती,
माँ मेरे पीछे से मेरे गुलक को भरती,
और बीच – बीच में पूछा करती ,
कितने पैसे हो गए हैं?
लगता है भरने वाले हैं?
मैं मासूम सी आवाज में हां माँ मेले तक हो जाएगा,
पर दिल को मालूम था ऐसा नहीं हो पाएगा,
फिर मेले वाला दिन आता ,
माँ के साथ घर का सारा सदस्य पीछे पड़ जाता,
मेरे प्यारे से गुलक को बड़ी बेरहमी से तोड़ा जाता,
लेकिन आप यकीन मानिए,
उम्मीद से कई गुना ज्यादा रूपया निकल आता,
क्योंकि मेरी माँ नही बताती थी,
मेरे पीछे में मेरा गुलक भरती थी,
ऐसा थी मैं मेरी माँ और मेरा गुलक
चंद्रप्रभा
गिरिडीह झारखंड