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तेलुगु व हिंदी के वरिष्ठ कवि- डॉ. टी. महादेव राव की कविताएं

ByMedia Session

Sep 15, 2020

सांस

तन के सांस लेने की आवाज़

पता तो चलता है लेकिन भीतर

सांस न ले पाने की खामोशी

तुम्हें पता चले बिना

तुमने जो खोया है

उसे खोयी जगह पर ही ढूंढ कर देखो

एक बार अंतरतम की नमी को

जी भर छूके देखो

तुम्हारे भीतर विस्फोटों की आवाज़ों से

वैसे ही एक बार धकेल कर बाहर आओ

तुम में नई सांस भरने के लिए

इतने दिनों तक तुमने जिस पर ध्यान नहीं दिया

अलग दुनियाँ तुम्हारी साथ ही है।


पूनम की चाँदनी

डॉ टी महादेव राव

पूनम की रजत सी चाँदनी

अपनी किरण- मृदु- प्रेम-करों से

जब उफनते सागर का करती है स्पर्श

इस प्रणय से सराबोर समुद्र

उल्लसित भावनाएं

अभिव्यक्त करता है लहरों के रूप में

दूर बहुत दूर तट पार कर

किनारे पर रेत में एकाकी प्रेमी युगल

प्रेममयी लहरों में भीग जाते है

और लौट आते हैं यथार्थ संसार में ।

चाँदनी में सागर तट

ज्यों बिछी हुई चांदी के कण

उस पर भागती तुम ओढ़े श्वेतवसन

तुम्हारे पद चिह्न गीली रेत पर

ज्यों कोई कलाकार

चांदी पर कर रहा हो नक्काशी

दूर सागर के सिर पर चाँद

बीच में लहरों पर चमकती चाँदनी

कानों में ठंडी हवा

जो प्रकृति के सौंदर्य रहस्य

अपनी भाषा में मुझ से कह रही है

और मैं दूर पताका सी उड़ते तुम्हारे श्वेत वस्त्र

देख रहा हूँ सुध बुध खोये।


पत्थरों की बारिश

डॉ टी महादेव राव

यहाँ कुछ नहीं पत्थरों के सिवा

खून खौले पत्थरों से

किए गए घावों के सिवा

पथरीले पत्थर के फेंके हुये

विकटाट्टहास हैं नींव के पत्थर

ढहाए गए घरों के खण्डहर

कंकरों के कराल नृत्यों से

घायल तनों के अलावा

तेज़ी से घुसते आते गुलेल के पत्थर

किसी भी संगीत से न पिघलने वाले

कब्र के पत्थर

प्राण हरने वाले फिसलन भरे पत्थर

अब यहाँ कुछ नहीं है पत्थरों के सिवा

पत्थरों जैसे मनुष्यों के अलावा

मनुष्य जैसे दीखते पत्थरों

समूहों और समुदायों के सिवा।


बूंदें बारिश की

डॉ टी महादेव राव

बारिश की बूंदें

टकराती है सूरज की किरण से

सतरंगी इंद्रधनुष के सारे रंगों में

खोजता हूं खुद को

भुला बैठता हूँ अपना अस्तित्व

बन जाता हूँ पत्तों के किनारे

टपकने को आतुर बारिश की बूंद

रम्य प्रकृति में रम जाता हूँ

तेज वर्षा भिंगाती जाती पत्ता पत्ता डाल डाल को

सूखा नहीं जलमय वन का कोई कोना

ऐसे में दो शाखों के बीच घोंसले में

गुलाबी छोटे छोटे चोंच जब भींगते हुये

चिरमिराते चिल्लाते हैं

बड़े पक्षी का रूप लेकर

फैलाते हुये अपने मजबूत डेने उस घोसले को

रोकना चाहता हूँ भींगने से

उनका अपना बनकर


आखिरी पड़ाव

डॉ टी महादेव राव

मालूम नहीं हो रहा है

ज़िंदगी कहाँ से शुरू करूँ

और करूँ कहाँ खत्म

पता चले कैसे

ज़िंदगी मेरे बस में नहीं है

उड़ते हुये आकाश में

कबूतरों को डर है शिकारी का

शीतल समीर में

घूमती तितलियों को भय है

कहीं पंख नोंच न डालें

घौंसले बनाकर प्यार करने में

पंछियों को भीति है चीलों का

डर है राह में डर है जीवन में

भय है अंधेरे में भय है परिसर में

ज़िंदगी कहाँ से शुरू करूँ

कहाँ खत्म करूँ पता नहीं

तिनके से शुरू करके

पीपल की छांव में रुक गया हूँ मैं

मोंगरे के बाग में गीत गाकर

लताओं में फंस गया हूँ मैं

हवा से खेलते हुये उड़ उड़ कर

धूल भरी आँखों से ज़मीन पर गिरा हूँ मैं

हम से शुरू होकर मैं पर खत्म हो रहा हूँ मैं

कहाँ से शुरू करूँ ज़िंदगी

समापन मेरे हाथ में नहीं

एक सुबह में

डॉ टी महादेव राव

कहीं आवाज़

झूले के रुकने की

झुलाते हाथों को पता नहीं चलता

झूले के रुकने की आवाज़

मन मौनी हो गया

समय कहीं रुक गया

एकाकी पंख पर

राजहंस ज़मीन पर ढह गया

दूसरा जहां

कहीं और नहीं

यहीं

चलते फिरते साये में

खिले हुये मन में

समय यहीं थम गया है

मन यहीं रुक गया है


सांप और कविता

डॉ टी महादेव राव

अब तो नाम तक मुझसे छूट गए लेकिन

पहले हुआ करते थे एक तारा और एक पेड़

होती थीं होंठों पर कुछ देर नाचती गर्माहट भरी किरणें

उन्हें लौटा नहीं सकती कोई मोहब्बत कोई खामोशी

अपनाए गए पलों को गलतियां मानकर दुखी होते समय

सारी आपसी बातें लंबी बातचीत

शीत की सुबह घिरती धुंध के कौर बन गए

बेतहाशा रो रही है अपने ही घर में बंदी बच्ची

मुझ पर किसका शाप है?

उसे अब कभी गले न लगा पाने का दुख

कौन से फूल कौन से रंगीन पत्थर कौन सी आग

प्यास बुझाएगी

कविता हमेशा रहती है

छिपी रहती है

सदा भूखी रहती है

मेरा दर्द अब मेरा नहीं रह गया

अब वह रेंगती केंचुली भरी कविता बन गया

मैंने खुद को एक हलचल माना

कितना अहम है मुझमें?

न जानते हुये कि यह खेल है

इन्हीं चौखटों में बहुत समय घूमता रहा

लंबी सीढ़ी में कदम मात्र मैं

अब विस्मृति में चला जाऊं कोई बात नहीं

रात मुझ पर रेंगती है हिसाब मांगते हुये जाँचते हुये

अब तक तो उसने मुझे निगला नहीं

तितली के छोड़े अवशेष लिए

थककर बेरंग इंद्र धनुष की छाँव में चलता रहा हूँ

साँप और कविताओं को लपेटे चलता रहा हूँ

रात तालाब किनारे

डॉ टी महादेव राव

रात के समय

थकी हुयी पृथ्वी सा

तालाब में नांव

बीती कहानियों सी

कभी कभी

उछलती हैं मछलियाँ

लहरविहीन

मूक पानी की नज़र

तारों को एकत्र कर चंद्रमा

अपलक बादलों की

बनता है आँख

किस पेड़ के घोंसले में

छिपी है हवा

छूती नहीं है

किनारे पर मैं

मिट्टी का शून्य हूँ।


कविता

डॉ टी महादेव राव

घिरकर बादलों से

हिलते हैं पेड़ सायों में

तुम्हारी यादों में

आती है बारिश की गंध मुझ में

पिछली गरमियों के घाव

लगता न था कभी भरेंगी

फिर भी सीने पर दाग देख पूछते हैं बच्चे

‘पापा! यह क्या है?’

वह….. मुझसे छूटा तुम्हारा चेहरा है

तुम्हारे रंग से तुम्हारी रोशनी से चमकते

उन तितलियों को मैं बता नहीं पाऊँगा

स्तनपान करते हुये गोद से छूट

मर चुके शिशु के बारे में

कोई मां क्या कह सकती है ?

बादल घिरकर

पेड़ स्तब्ध होंगे तब छावों से

झड़ते पत्तों से

तुम्हारे न होने से

बिना बरसे लौटती बारिश मुझ में

घिरे हुये बादलों, दिन की निराशा भरे उजाले में

भारी और धीमे हिलते हुये पत्थर

तुम्हें याद है ?

पूछा था तुमने एक बार इसी तरह

कि क्या पत्थर बोलते हैं ?
लो… बताता हूँ सुनो….पत्थरों के भी दिल होते हैं

वे बातें करते हैं हँसते हैं

घायल होते हैं रोते हैं

लेकिन उसका सबूत?

यही है… यह छोटी सी कविता ।


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