हौसले हैं बहुं नदियों सी,
पर ये क्या मुसीबतें कमज़ोर कर देती हैं,
कभी धूप की निर्लज्जता तो कभी चट्टानों से हालात,
कभी अपशब्द खरपतवार रुपी,
कभी अभद्र मानवीय बरसात,
कैसे बहुं नदियों सी,
कैसे बनूं उस जैसी,
कहीं शांत हो जाती हूँ मैं भी इन नदियों सी,
कभी विचलित हो जाती मैं भी हूँ लहरों सी,
कुछ कह नहीं पाती है वह भी मुझ जैसी,
पर मुझे बनाना है बिल्कुल उस जैसी,
ये सही तो नही घबरा कर विचलित हो जाना,
अपनी परवाह को स्थिर कर देना,
चाहें कितनी रुकावटें आये,
चाहें जुल्म की सीमा बढ़ जाये,
सबको समेट कर बहना है,
मैं हूँ प्रबल उनसे फिर क्यों चुप रहना है,
अभी सादगी से सब टकराएंगे,
अभी अपनी बे मतलब की हिम्मत दिखाएंगे,
परास्त हो जाएंगे उस दिन जब सागर को अपने सामने पाएँगे
चंद्रप्रभा
गिरिडीह (झारखंड)