स्वर्गीय-श्री एल.पी.श्रीवास्तव
5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा 1962 से शुरू हुई जब भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन ने अपने जन्मदिन को मनाने की अनुमति मांगने पर अपने दोस्तों और प्रशंसकों से शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया। यूं तो हमारी परंपरा में और सामूहिक चेतना में गुरु का स्थान सर्वोपरि है परंतु फिर भी जीवन की भागम-भाग में किसी विशेष दिवस पर याद करना उसकी महत्ता को रेखांकित करता है। शिक्षक का आशय उस व्यक्ति या व्यक्तियों से होता है जो आपके जीवन को मार्ग दिखाता है और आपको गलत रास्ते पर जाने से रोकता है।मैं इस विषय में भाग्यशाली रहा कि मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री एल पी श्रीवास्तव शिक्षक थे और बाराबंकी के सिटी इंटरमीडिएट कॉलेज से प्रिंसपल के रूप में सेवानिवृत्त हुए। उनका एक ही मंत्र था कि कर्म ही पूजा है और वह जीवन भर इसका पालन करते रहे,यहां तक की 86 वर्ष की अवस्था में देहावसान के एक दिन पहले तक बच्चों को पढ़ाते रहें। उन्हीं के माध्यम से हम लोग अनेक शिक्षकों से जुड़ गए। घर पर गांधी जी,स्वामी विवेकानंद तथा शेक्सपियर के चित्र लगे थे जिनसे इन सबके जीवन एवं लेखन से सीखने को मिला। पिताजी ने ही तुलसी के रामचरितमानस एवं निराला की राम की शक्ति पूजा के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सूरदास एवं रसखान के माध्यम से श्री कृष्ण की शिक्षाओं से परिचित कराया। एक और कबीर और रहीम,दूसरी ओर बेकन मिल्टन,वर्डसवर्थ, जॉर्ज बर्नार्ड शा,वॉल्टियर आपके मष्तिष्क के प्रांगण में दस्तक देते रहे। मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में बृहद गुरुओं का ज्ञान जाने अनजाने में आप आपके भीतर सत्य चेतना, प्रकाश जैसी भावनाएं पल्लवित करता रहता है। तभी कहा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’।यह सब आपको कर्मठ निष्ठावान बौद्धिक एवं मानसिक रूप से जागरूक बनाने के पथ पर अग्रसर करते हैं।
इसके अतिरिक्त भी मेरे जीवन में अनेक शिक्षकों का प्रभाव पड़ा जिन सबका नाम यहां पर लेना संभव नहीं है।कई बार ऐसा भी होता है कि नकारात्मक प्रभाव भी हमको बहुत कुछ शिक्षा दे जाता है कि हमें इन चीजों से सतर्क रहना है और अपना जीवन ऐसा नहीं बनाना है।हमारी युवावस्था में बीएससी के जूलॉजी के शिक्षक श्री एच. सी. निगम का भी हमारे पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने वैज्ञानिक चेतना का बहुत प्रभाव वाला डाला।उनकी प्रेरणा से हमने अपने मित्र सूर्य प्रकाश सिंह की सहायता से एक वैज्ञानिक अनुसंधान “वाइटल कैपेसिटी ऑफ लंग” किया जिसे उस समय की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका “जूनियर साइंस डाइजेस्ट” ने प्रकाशित किया। उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात सिखाई कि अपने वेतन का एक हिस्सा पुस्तकों पर जरूर खर्च करना। यह आदत गुरु कृपा से अभी तक बनी हुई है और यह मुझको मनुष्य रूप में बनाए रखने में सहायक रहती है।
सभी गुरुवरों को नमन।
राकेश श्रीवास्तव,
लखनऊ