

उत्तर प्रदेश में चल रहा विधानसभा चुनाव अंतिम दौर में है 07 मार्च को चुनाव खत्म होंगे और 08 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। पूरे चुनाव में महिला अधिकारों पर बातें तो खूब हुईं, लेकिन महिलाओं और नाबालिग बच्चियों के खरीद – फरोख्त यानी (ह्यूमन ट्रैफिकिंग) पर शायद ही किसी भी दल ने कुछ कहा या करने का वादा किया। क्या राष्ट्रवादी, क्या समाजवादी, क्या उदारवादी और क्या नारीवादी सभी इस संवेदनशील मसले पर ‘मगर हम चुप रहेंगे की भूमिका में रहे और आगे भी रहेंगे’। जबकि सच यह है कि बिना किसी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के इस अमानवीय बर्बर पेशे पर रोक लगाना संभव नहीं है।
चुनावों में गाय-गोबर, हिन्दू-मुसलमान,अगड़े-पिछड़े तो मुद्दे बन जाते हैं लेकिन कई हाथों से होकर बार-बार बिकने वाली बच्चियां कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती। मानव तस्करी की अंधी दुनिया में लोकतंत्र की रौशनी वर्जित है और बेटी बचाओ जैसे नारे बेदम। सरकारी आंकड़ों के अनुसार फिलहाल देश भर में फैले रेड लाइट एरिया (Red Light Area) में 12 लाख नाबालिग बच्चियां कैद हैं और न जाने कितनी इस तरफ आने वाले रास्तों पर घसीटी जा रही हैं।
एक व्यक्ति के रूप में हम असंवेदनशील और समाज के रूप में हम मृत हो चले हैं इसलिए हम खामोश हैं और सरकारें लापरवाह। मानव खरीद – फरोख्त की मंडिया इसलिए आबाद हैं कि मुनाफे के बंटवारे का बड़ा हिस्सा सिस्टम के अलग – अलग हिस्सों को पहुचाता रहता है। मानव तस्करी की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता कि संविधान निर्माताओं ने इस जघन्य कृत्य को अनुच्छेद 23 में जगह देते हुए जल्द से जल्द इसके समूल नाश की पैरवी की, लेकिन आजादी के 7 दशक बाद भी ये कारोबार फल-फूल रहा है।
अधिवक्ता और एक्टिविस्ट गोपाल कृष्ण बताते हैं इस मामले में बड़ी शिथिलता इसको रोकने के लिए बनायी गई मशीनरी में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बच्चों के गायब होने के मामले की एफआईआर (FIR) पुलिस फौरन दर्ज ही नहीं करती। इसका फायदा ट्रैफिकर उठाते हैं। उनका नेटवर्क बेहद तेजी से काम करता है जितनी देर में उनको दबोचने वाली ऐजेंसियां सक्रिय होती हैं उतनी देर में उठाई गई बच्ची कई हाथों से बिकते हुए दूर पहुंच जाती है।
दरअसल इस संवेदनशील मामले में पुलिस एफआईआर दर्ज न कर अपना रिकॉर्ड सुधारना चाहती है। एनसीआरबी का रिकॉर्ड बीते साल गायब किए गए बच्चों की संख्या 1714 बताता है इनमें 90 मामले उत्तर प्रदेश से हैं जबकि जमीनी हकीकत कुछ और कहानी कहती है। इसके अलावा विक्टिम कंपनसेशन फंड का भी इस्तेमाल सही तरीके से नहीं किया जाता।
बेटी बचाओ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में आज तक अलग से मानव तस्करी को रोकने के लिए एंटी ट्रैफिकिंग थाना ( Anti human trafficking Thana ) तक नहीं बनाया गया है। फिलहाल सारनाथ थाने को ही ये जिम्मेदारी दी गई है। इसके लिए करोड़ों का बजट भी है लेकिन फिर भी इस मसले पर सरकार और उसकी व्यवस्था उदासीन है। मानव तस्करी की रोकथाम के लिए सबसे ज्यादा पैसा उत्तर प्रदेश के हिस्से में आता है लेकिन उस पर काम नहीं होता। मानव तस्करी के दलदल में फंसे जिंदगियों को निकालने के लिए बड़े पैमाने पर रेस्क्यू सरकारी मशीनरी न के बराबर करती है यदा-कदा ढाबे पर छापेमारी कर कुछ भुक्तभोगियों को छुड़वाने तक ही ये रह जाते हैं।
ट्रैफिकिंग रूट यानी जिन रास्तों से पीड़ित को लाकर उसकी खरीद-फरोख्त की जाती उसको चिन्हित कर लोगों की गिरफ्तारी का काम भी नहीं किया जाता। जिसके चलते ये अमानवीय धंधा निर्बाध गति से चलता रहता है। इस मामले में तमाम अदालती आदेश और निर्देश, मानव तस्करी को रोकने के लिए आईपीसी की धारा (370) के बावजूद सफेदपोश गठजोड़ जिसमें विभिन्न स्तरों पर स्वयं सेवी संस्थाओं से लेकर सरकारी मशीनरी, राजनीतिज्ञ शामिल है को ध्वस्त किए बगैर इस अमानवीय पेशे का अंत संभव नहीं दिखता। बिकती बच्चियों पर हमारी चुप्पियों को भी तोड़ने का यही वक्त है साथ ही इस मामले में जबरदस्त सामाजिक हस्तक्षेप का भी।
(वाराणसी से पत्रकार भास्कर गुहा नियोगी का लेख।)

