‘विनाश काले विपरीत बुद्धि ‘ ,ये कहावत सभी पर लागू हटी है,व्यक्तियों पर भी और समूहों पर भी.देश में चल रहे किसान आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार का व्यवहार भी यही प्रदर्शित कर रहा है कि उसका विनाशकाल ही सत्ता की बुद्धि को पिरीत किये हुए है. केंद्र सरकार आज पांचवें दिन भी किसानों से सीधी बातचीत के लिए राजी नहीं है. सरकार की अपनी शर्तें हैं और किसानों की अपनी शर्तें .अब सवाल ये है कि कौन झुके और कौन नहीं ?
किसानों का आंदोलन देश के किसानों का नदोलन है ये मैंने के लिए केंद्र सरकार तैयार नहीं है. सरकार की नजर में ये किसान आंदोलन केवल पंजाब के किसानों का आंदोलन है और प्रायोजित है,राजनीति से प्रेरित है ,जबकि ऐसा है नहीं .पंजाब के किसान इस आंदोलन के मूल में हैं लेकिन ये आंदोलन पूरे देश के किसानों का है. इस आंदोलन में पूरब और दक्षिण के किसान शामिल होने दिल्ली नहीं आ सके इसलिए इसे केवल पंजाब के किसानों का आंदोलन मान लेना एक बड़ी भूल है .
किसानों की मांगे स्पष्ट हैं और केंद्र सरकार का रवैया भी. किसान आंदोलन के चलते प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात ‘कार्यकम में सरकार के रुख के संकेत दे दिए हैं .जाहिर है कि यदि सरकार को किसानों की फ़िक्र होती तो सरकार हठधर्मिता के बजाय फौरन बातचित्त का रास्ता अपनाती .सरकार पर किसानों का नहीं किसानों को लूटने वालों का दबाब है .सरकार किसानों को सर्दी में ठिठुरते देखकर भी द्रवित नहीं है. सरकार की पुलिस लाठियां,अश्रुगैस और जलधाराओं के साथ लैस होकर खड़ी है ,लेकिन बातचीत से उसे परहेज है .
आपको अजीब नहीं लगता कि किसान आंदोलन को लेकर सरकार की और से देश के गृहमंत्री सशर्त बातचीत का न्यौता देते हैं ,लेकिन कृषि मंत्री की भाव-भंगिमा में कोई नरमी नहीं दिखाई देती .माना कि देश के प्र्धानमंत्री को खेती-किसानी का अनुभव नहीं है.लेकिन कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर तो सीधे किसान परिवार से आते हैं ,फिर उनके मन में किसानों के लिए संवेदना क्यों नहीं है?क्यों वे कारपोरेट की भाषा बोल रहे हैं ?उन्हें किसानों की आपत्तियों का निराकरण करने में क्या आपत्ति है ?
जाहिर है जब देश में किसान विरोधी क़ानून बनाये जा रहे थे तब राज्यों से सहमति की कथित औपचारिकता का निर्वाह किया गया था ,लेकिन अब जब इन कानूनों से प्रभावित किसान सीधे कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहा है तो सरकार हठ पकड़कर क्यों बैठी है ?विविधताओं वाले देश में खेती भी एकरूप नहीं है. मैदानी खेती की प्रकृति अलग है और पहाड़ी क्षेत्र की खेती की प्रकृति अलग.समुद्र तटीय खेती की प्रकृति अलग है और रेगिस्तान की खेती की प्रकृति अलग .इसलिये जो क़ानून बनाया गया है वो सभी किसानों पर लागू कैसे किया जा सकता है ?
नये कृषि कानूनों के खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर पिछले चार दिन से प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों ने प्रदर्शनकारियों के उत्तरी दिल्ली के बुराड़ी स्थित मैदान में जाने के बाद बातचीत शुरू करने के केंद्र के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि वे कोई सशर्त बातचीत स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि वे राष्ट्रीय राजधानी में आने वाले सभी पांच प्रवेश मार्गो को बंद कर देंगे। बता दें कि रविवार तक सिर्फ सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर ब्लॉक थे, मगर अब गुरुग्राम, गाजियाबाद और फरीदाबाद से राजधानी को जोड़ने वाले हाईवे को किसानों द्वारा ब्लॉक किया जाएगा।जाहिर है कि स्थिति टकराव की बन गयी है ,इसे फौरन टाला जाना चाहिए .
देश की आबादी का 68 से 70 फीसदी हिस्सा किसानों का है ,लेकिन देश के क़ानून किसानों के लिए अनुकूल नहीं है और शायद इसीलिए देश में हर साल हजारों किसानों को आत्महत्या करना पड़ती है .वे आजादी के बाद से अब तक साहूकारों के चंगुल से मुक्त नहीं हुए हैं. आधुनिक बैंकिंग प्रणाली ने भी उन्हें राहत नहीं दी है .बैंक,महाजन और बिचौलिए आज भी किसानों के दुश्मन बने हैं .नए कृषि कानूनों ने किसानों का मन और खट्टा कर दिया है .और सरकार के अड़ियल रवैये से ये खटास लगातार न सिर्फ बढ़ रही है बल्कि अब खाई में तब्दील हो रही है .
जग-जाहिर है कि भारत में उदारीकरण की नीतियों के बाद खेती ,खासकर नकदी खेती करने का तरीका बदल चुका है। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण “पिछड़ी जाति” के किसानों के पास नकदी फसल उगाने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर अभाव होता है और बहुत संभव है कि ऐसे किसानों पर बीटी-कॉटन आधारित कपास या फिर अन्य पूंजी-प्रधान नकदी फसलों की खेती से जुड़ी कर्जदारी का असर बाकियों की तुलना में कहीं ज्यादा होता हो.पंजाब और हरियाणा का किसान इस शोषण के खिलाफ सबसे पहले खड़ा होता है क्योंकि इन राज्यों में आज भी खेती ही प्रमुख व्यवसाय है .ऐसे में किसानों के आंदोलन की अनदेखी करना अलोकतांत्रिक है .
सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन की सरकार किसान आंदोलन के पीछे कांग्रेस और अकालीदल का ही हाथ नहीं मानती बल्कि वो इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए खालिस्तान जैसे आंदोलनों से जोड़ने की गलती भी कर रही है .सरकार का ये दृष्टिदोष भारी पड़ सकता है .किसानों का ये आंदोलन सतह के नीचे पनप रहे असंतोष का प्रतिनिधित्व करता है .किसानों के इस आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया है कि अभी समाज ने प्रतिकार की शक्ति पूरी तरह से तिरोहित नहीं हुई है .ऐसे आंदोलनों से ही निरनखुशता को रोकने की उम्मीद बंधती है .
किसान आंदोलन को लेकर आने वाले दिनों में राजनीति किस करवट जाती है ये देखना कौतूहलपूर्ण होगा .मुझे उम्मीद है कि सरकार अंतत: समझदारी दिखेगी और किसानों के मन से आशंकाओं को समाप्त करने के सभी आवश्यक कदम उठाएगी .टकराव समस्या का हल नहीं दे सकता .टकराव से दशा और खराब होगी .इतिहास गवाह है कि दमन से आंदोलनों की विभीषिका और बढ़ती है,कम नहीं होती .
आपको ये बताना बहुत आवश्यक है कि इस देश में किसान आंदोलनों का इतिहास नया नहीं हैं. हमारे यहां 1900 की शुरुआत में ही भारत में किसान पहले से ज़्यादा संगठित होने लगे. वर्ष 1917 में अवध में किसान गोल बंद होने लगे.वर्ष 1917 में ही अवध में सबसे पहला, सबसे बड़ा और प्रभावशाली किसानों का आंदोलन हुआ. वर्ष 1919 में इस संघर्ष ने ज़ोर पकड़ लिया और वर्ष 1920 के अक्तूबर महीने में प्रतापगढ़ में किसानों की एक विशाल रैली के दौरान ‘अवध किसान सभा’ का गठन हुआ.
किसानों के इस संघर्ष की ख़बर पूरे देश के किसानों के बीच फैल गई और महाराष्ट्र के किसान नेता बाबा राम चंदर कई किसानों के साथ इस आंदोलन में शामिल हो गए. बाबा राम चंदर को पूरी रामकथा कंठस्थ थी और वो गाँव-गाँव घूमकर उसे सुनाते और किसानों को गोलबंद करने का काम करते.आज भी देश में बाबा राम चन्दर के वंशज इस काम में लगे हैं .वे पुलिस की लाठी और गोली से डरते नहीं हैं .
@ राकेश अचल