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देश के मूर्धन्य लेखक राकेश अचल की कलम से- क्या सचमुच आप “किसान हितैषी” हैं ?

ByMedia Session

Sep 18, 2020

अन्नदाता और चाय प्रदाता में बुनियादी फर्क होता है और इसी फर्क को शायद हमारे देश की सरकार समझ नहीं पाई ,फलस्वरूप लोकसभा में किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, २०२० पारित होने के साथ ही गठबंधन दरकने लगा. किसानों के प्रदेश पंजाब से आयी अकालीदल की हरसिमरत कौर ने इस विधेयक के विरोध में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया .और ठीक ही दिया .यदि एक लेखक न होकर मै भी मंत्री होता तो शायद यही करता.लेकिन ‘मन हौंसिया,करम गढ़िया’.
टीवी और सोशल मीडिया पर उछल-कूद करने वाले ज्यादातर लोग इस विधेयक की दुश्वारियों को शायद समझ नहीं पाएंगे.मै भी शायद न समझ पाटा लेकिन मुझे संयोग से चाय कारोबार का तजुर्बा भले न हो किन्तु खेती-किसानी का पूरा ककहरा मैंने पढ़ा है ,इसलिए मुझे लगता है की सरकार ने जो विधेयक तैयार किया है वो किसानों के हितों के खिलाफ है और इसके पीछे वे ही शक्तियां हैं जो देश की परिसम्पत्तियों को टुकड़ों-टुकड़ों में खरीद रहीं हैं ,मुझे हैरानी है तो सिर्फ इतनी की एक किसान परिवार से होते हुए भी केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कैसे ऐसा किसान विरोधी विधेयक बनाने पर सहमत हो गए. इस विधेयक के खिलाफ हरसिमरत से पहले इस्तीफा नरेंद्र सिंह तोमर का होना चाहिए था ,क्योंकि वे किसानी का ककहरा मुझसे ज्यादा समझते हैं .
हमारे देश का किसान संसदीय और विधिक भाषा को नहीं समझता.इस किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020 में एक पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण का प्रावधान किया गया है। इसमें किसान और व्‍यापारी विभिन्‍न राज्‍य कृषि उपज विपणन विधानों के तहत अधिसूचित बाजारों के भौतिक परिसरों या सम-बाजारों से बाहर पारदर्शी और बाधारहित प्रतिस्‍पर्धी वैकल्पिक व्‍यापार चैनलों के माध्‍यम से किसानों की उपज की खरीद और बिक्री लाभदायक मूल्‍यों पर करने से संबंधित चयन की सुविधा का लाभ उठा सकेंगे।लेकिन जो सदन में बैठते हैं वे शायद इस भाषा को हम-आपसे ज्यादा समझते हैं ,और जो समझते हैं वे ही कह रहे हैं की ये विधेयक किसानों के हिट में बिलकुल नहीं है .
विधेयक लाने वाली सरकार कह रही है की नए कानून के बाद किसान उपज कहीं भी बेच सकेंगे। बेहतर दाम मिलेंगे। ऑनलाइन बिक्री होगी।ये विधेयक अनाज, दलहन, खाद्य तेल, आलू-प्याज अनिवार्य वस्तु सूची से हटा देगा अर्थात इनका भंडारण होगा। कृषि में विदेशी निवेश आकर्षित होगा।विधेयक की मुखालफत करने वालों का कहना है कि नए क़ानूओं से मंडियां खत्म हो जायेंगीं तो किसानों को एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा। वन नेशन वन एमएसपी होना चाहिए.किसानों का दर्द समझने वालों को आशंका है कि नए विधेयक में फसल की कीमतें तय करने का कोई ‘मैकेनिज्म’ नहीं है। डर है कि इससे निजी कंपनियों को किसानों के शोषण का जरिया मिल जाएगा। किसान मजदूर बन जाएगा।इतना ही नहीं नई व्यवस्था में कारोबारी जमाखोरी करेंगे। इससे कीमतों में अस्थिरता आएगी। खाद्य सुरक्षा खत्म हो जाएगी। इससे आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी बढ़ सकती है.
पिछले छह साल में हमारी सरकार जिस तरिके से काम कर रही उससे जाहिर ही नहीं बल्कि प्रमाणित हो चुका है कि सरकार देश की आम जनता के लिए नहीं बल्कि कुछ मुठ्ठी भर पूंजीपतियों के लिए काम कर रही है .पिछले सात माह में कोविड-19 के बाद सरकार की नाकामियों की फेहरिश्त और लम्बी हो गयी है और इसके चलते सरकार एक बार फिर पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बनती दिखाई दे रही है ,यदि ऐसा न होता तो सरकार इस विधेयक पर आमराय बनाती .दूतभाग्य ये है कि इस सरकार का आमराय से कोई वास्ता नहीं है.ये सरकार खासराय पर चलने वाली सरकार है और ये खासराय देने वाले लोग देश की अर्थव्यवस्था में घुन की तरह पैठ बना चुके हैं .
इस किसान विरोधी विधेयक के विरोध में सुश्री हरसिमरत के इस्तीफे से मोदी सरकार गिरने वाली नहीं है लेकिन सरकार के प्रति अविश्वास का श्रीगणेश तो हो ही जाएगा. अभी तक जनता में सरकार के प्रति अविश्वास था,अब खुद सरकार के सहयोगी दलों में अविश्वास है .मुक्किन है कि अकालीदल जैसा ही दुसरे अनेक दल भी सोचते हों लेकिन वे फिलहाल विधेयक के खिलाफ सरकार से बाहर आने का साहस नहीं दिखा पाए हैं ,किन्तु आज नहीं तो कल उन्हें भी किसान के साथ खड़ा होना होगा .दिल्ली से किसान और उसके खेतों की सेहत को समझना कठिन काम है .इसलिए आने वाले दिनों में किसानों की फ़िक्र करने वाले दुसरे दलों और उनके प्रतिनिधियों का जमीर भी जाग सकता है .जमीर जागना चाहिए. और केवल इस्तीफा देने से काम नहीं चलेगा,किसानों को साथ लेकर सड़क पर भी आना पडेगा .
भारत कृषि प्रधान देश कहा जाता है,है भी लेकिन दुर्भाग्य से यहां की सरकारें किसान को नीतियां बनाते समय प्राथमिकता नहीं देतीं.उनकी प्राथमिकता में पूंजीपति ही होते हैं. ये काम केवल भाजपा ही कर रही हो ऐसा नहीं है,सभी दलों की सरकारें ऐसा करतीं हैं लेकिन इतनी बेशर्मी से नहीं करतीं जितनी बेशर्मी से अब किया जा रहा है .इस देश में सरकार की नीतियों के कारण ही अतीत में श्वेत और हरित क्रान्ति आ चुकी है .इसी का नतीजा है कि हमारे पास इतना अन्न उत्पादन हो रहा है कि सरकार न उसे खरीद पा आरही है और यदि खरीद भी रही है तो उसका भंडारण नहीं का पा रही है. किसानों से खरीदा अन्न खुले में पड़ा-पड़ा सड़-गल रहा है या उसे चूहे खा रहे हैं .सरकार अपनी भंडारण क्षमता बढ़ाने या प्रसंस्करण उद्योग को मजबूत बनाने के बजाय निजी क्षेत्र के लिए पूरा दरवाजा खोले दे रही है. किसानों के सर पर न्यूनतम खरीद मूल्य का जो सुरक्षा कुछ है उसे हटाए ले रही है ताकि झक मारकर पूंजपतियों की शरण में जाये.
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर यद्यपि मेरे अपने शहर के हैं और उन्होंने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि किसानों से जुड़े तीनों विधेयक क्रांतिकारी साबित होंगे। इससे किसानों को उपज के लिए लाभकारी मूल्य दिलाना तय होगा। इस विधेयक से राज्य के कानूनों का अधिग्रहण नहीं होता,लेकिन मुझे उनकी बातों पर यकीन नहीं होता। विपक्ष को हो तो हो। यदि ये विधेयक पारित होकर क़ानून बन गया तो तय मानिये की २०२४ के आने तक अन्नदाता की सूरत,सीरत सब कुछ बदल जाएगी वे फिर से चाकरी करते नजर आएंगे।

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