गांव केरे बीचोबीच मा
रहै गढ़ही बीघा भरकी,
हमरे देखतै देखत भैया
गढ़ही बची चुरवा भरकी।
हमेशा जमी रही हरियर काई
बरखा मा रहै लबालब पानी,
नहाय भैंसी तैरैं मांगुर मछरी
औ गरमी मा रहै खूब पानी।
जोंक कछुवा पनिहा साँप
सब गढ़ही मा खूब घूमय,
किनारे किनारे वनमुर्गी झुंड
कुकरुकबुआ कुकरुकबुआ बोलय।
चारिव तरफ रहैं बिरवा बौड़ी
छुट्टा हरहा पियें गढ़ही केर पानी,
गढ़हिक चिकन माटी अनमोल
होली मा लेस-फेनिया जाय सानी।
भीगत रहैं सबके झाँखर पटुवा
खेतन की होत रहय सिंचाई,
गांव मा जब जब लगी आगि
गढ़हिक पानी ते गई बुझाई।
रहय वह बड़ी गहरी अउ चौड़ी
लरिका तैरब सीखिन उहिमा,
पड़ोसी फेंकिन दूर की कौड़ी
शुरू भा कब्जा सबका उहिमा।
चारो तरफ से पटय लागि गढ़ही
पंडित की गौशाला महतव का तबेला,
लम्बरदार की बनि गई लैट्रिन
चौधरी का रखा मड़हा अलबेला।
गांव केरे बीचोबीच मा
रहै गढ़ही बीघा भरकी,
हमरे देखतै देखत भइय्या
गढ़ही बची चुरवा भरकी।
रचना- नागेन्द्र बहादुर सिंह चौहान