• Thu. Nov 21st, 2024

mediasession24.in

The Voice of People

सभी कक्षाओं के छात्रों को भागवत गीता पढ़ाएं जनहित याचिका – हाईकोर्ट ने खारिज की

ByMedia Session

Nov 30, 2020

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश – सर्वधर्म सम्मान भारत की पहचान – एड किशन भावनानी

गोंदिया – भारत को सन 1947 में आजादी मिली किन्तु विभाजन के मर्म एवं देश में साम्प्रदायिकता और दंगों से उत्पन्न हुई परिस्थितियों ने देश के सम्मुख धर्मनिरपेक्ष छवि को कायम रखना सबसे बड़ी चुनौती थी। ये दौर भारतीय इतिहास में उथल पुथल का दौर था और आजादी के पश्चात कई राजनितिक दल एवं नेता धार्मिक गोलबंदी के कारण भारत को भी पाकिस्तान की तर्ज पर एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे। किन्तु संविधान सभा के कई सदस्य एवं देश के संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता की वजह से भारत कुछ धार्मिक कट्टरपंथियों के विचारों से प्रभावित नही हुआ और अपनी धर्मनिरपेक्ष राज्य की छवि को बनाये रखने में सफल रहा। अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो भारतीय प्रधानमंत्री का संदेश सबका साथ सबका विकास और हमारा भारत का संविधान हमारे पास एक ऐसा अस्त्र है जिसको शासन, प्रशासन, न्यायपालिका या कितनी भी बड़ी हस्ती हो, नकार नहीं सकता और संविधान का सम्मान करना ही होगा, यह हम भारतीयों की सबसे बड़ी विश्वप्रसिद्ध खूबसूरती है। भारतीय संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, जैसे अनुच्छेद 25 से 28, अनुच्छेद 29,30 के माध्यम से भाषाई एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनकी विशिष्ट पहचान एवं संस्कृति के सरंक्षण का प्रावधान है, फिर भी 1976 में संविधान के 42 वे संविधान संशोधन में धर्म निरपेक्षित शब्द को जोड़ा गया। भारतीय धर्म निरेक्षता पर अलेक्जेंडर ओविक्स ने लिखा है ” धर्म निरपेक्ष भारत के संविधान के मूल का एक अभिन्न हिस्सा है और इसका अर्थ सबके लिए समान स्वतंत्रता एवं सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव है। इस तरह का ही एक मामला बुधवार दिनांक 25 नवंबर 2020 को इलाहबाद हाईकोर्ट में दो जजों की बेंच जिसमें माननीय न्यायमूर्ति पंकज मित्तल तथा माननीय न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया के बेंच के सम्मुख जनहित याचिका (सिविल) क्रमांक 22346/2020 ब्रम्हशंकर शास्त्री बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, द्वारा सचिव बेसिक शिक्षा लखनउ व अन्य आया और बेंच ने अपने एक पृष्ठ के आदेश में वह याचिका खारिज कर दी, जिसे “जनहित में” दायर किया गया था, जिसमें यह निर्देश की मांग की गयी थी कि “भगवत गीता को सभी विषयों के साथ, शिक्षा समाज के समग्र हित में छात्रों को पढ़ाया जा सकता है।” बेंच ने रिट याचिका को “पूरी तरह से अस्पष्ट” करार दिया और इस तरह इसे खारिज कर दिया गया। जनहित में याचिकाकर्ता ने अदालत से यह मांग की कि “भगवत गीता” को सभी विषयों के साथ छात्रों को (बेसिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक) के लिए एक विषय के रूप में पढ़ाया जा सकता है। हालांकि, खंडपीठ ने याचिकाकर्ता (ब्रह्म शंकर शास्त्री), जो व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हुए थे, से कहा कि यदि वह “भगवत गीता” को इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में विषयों में से एक के रूप में शामिल करना चाहते हैं तो वे बोर्ड ऑफ हाई स्कूल और इंटरमीडिएट एजुकेशन, उत्तर प्रदेश या किसी अन्य बोर्ड या विश्वविद्यालय से संबंधित उपयुक्त प्राधिकारी से संपर्क कर सकते हैं. हाल ही में, गुरुवार (05 नवंबर) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दायर एक रिट याचिका के विषय में, जिसके अंतर्गत कुछ कानूनों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए दिशा-निर्देशों के लिए प्रार्थना की गयी थी, कहा था कि याचिका उचित नहीं है और यह “ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी याचिकाएं केवल लोकप्रियता के लिए दायर की जाती हैं।” अगर हम इस विषय को लेकर विश्लेषण करें और भारत के गूड इतिहास में जाकर सदियों पहले इसकी प्रथा को देखें तो धर्म मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही किसी न किसी रूप में मानव-जीवन को प्रभावित करता रहा है। धर्म मानव का अपने से परे एक ऐसी शक्ति में विश्वास है जिससे वह अपनी संवेगात्मक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं पूर्ति करता है। एक व्यापक अभिवृत्ति के रूप में धर्म मानव जीवन के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, व राजनैतिक सभी प्रवृत्तियों को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है। कालान्तर में धर्म के विस्तार के साथ ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा ने भी जन्म लिया। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार- ‘‘धर्मनिरपेक्षता का मतलब “धर्म से स्वतन्त्र (निरपेक्ष) या गैर-आध्यात्मिक (अनाध्यात्मिक) या लौकिकता या सांसारिकता सम्बन्धी विचार है।”… भारत में धर्मनिरपेक्षता – भारतीय परंपरा में पाश्चात्य मत से विपरीत धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म-हीनता नहीं है, इसका अर्थ सभी धर्मो के प्रति समान आदरभाव एवं समान अवसर है, चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। जहाँ पाश्चात्य राज्य धर्मनिरपेक्षता धर्म व आध्यात्मिकता की अवहेलना करती है, वहीं भारतीय राज्य सभी धर्मों के प्रति सहनशील होना व उन सबका समान रूप से आदर करने को धर्मनिरपेक्षता मानता है। वस्तुतः पाश्चात्य और भारतीय दोनों मत क्रमशः धर्मनिरपेक्षता के अभावात्मक एवं भावात्मक रूप का प्रतिपादन करते हैं पर इस अन्तर के बावजूद दोनों ही वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को अपनाते हुए बौद्धिक एवं वैज्ञानिक उपायों द्वारा व्यापक अर्थों में मानव-कल्याण का समर्थन करते हैं। इस प्रकार दोनों ही मत राज्य के कार्यों में किसी भी धर्म को संरक्षण नहीं देते हैं। दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि दोनों ही समाज राज्य के धर्म विहीन स्वरुप का समर्थन करते है। विस्तृत रूप में अगर कहा जाए तो धर्मनिरपेक्षता एक प्रकार का मानवतावादी जीवनदर्शन है जो राजनीति, प्रशासन व क़ानून इत्यादि को धर्म व सम्प्रदायों से पृथक रखते हुए एवं मानव को अलौकिक या दैवीशक्तियों पर आश्रित रहने के स्थान पर पूर्णतया आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देकर उसके वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण का समर्थन करता है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता हर व्यक्ति को बिना किसी भेद-भाव के स्वतन्त्र रूप में व्यक्तित्व विकास का अवसर देती है और इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, धार्मिक कट्टरता, सम्प्रदायवाद एवं संकीर्णतावाद आदि का परित्याग कर व्यापक अर्थों में समाज एवं राष्ट्र-निमार्ण का मार्ग प्रशस्त करती है। – कर विशेषज्ञ एड किशन भावनानी गोंदिया (महाराष्ट्र)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *