इस्लामी तारीख का नया साल का पहला महीना मोहर्रम अब शुरू हो चुका है, इस महीना मोहर्रम का महत्व इस्लामी तारीख में इसीलिए है की इस महिने में बहुत सारे वाकयात इस मुबारक महीने यानी मोहर्रम से जुड़े हुए हैं, लेकिन जो वाक्या-ए-कर्बला इसमें हुआ उसने सबसे ज्यादा शोहरत पाई है और वह हजरत इमाम हुसैन नवासा-ए-रसूल की शहादत है जिसकी गूंज आज पूरी दुनिया में हर साल मोहर्रम के आते ही सुनाई देने लगती है और कयामत तक सुनाई देती रहेगी।
आखिर हुसैन के शहादत का इतना चर्चा पूरी दुनिया और विशेष कर इस्लामी दुनिया में क्यों है ? आज हमारी चर्चा का केन्द्र बिन्दू भी यही है। वह सभी वाकेआत जो आपने सुने और पढ़े हैं उन सब की तफसीलात से बचते हुए मकसद ए शहादत ए हुसैन पर हम आपके सामने एक वास्तविकता रखना चाहते हैं।
जिस दौर में यह शहादत का वाकया पेश आया, ऐसा नहीं था कि इस्लाम निरस्त हो गया था। इस्लामी शरीयत में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात मनसूख हो गए थे, नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, दरअसल हज़रत माविया(रज़ि.) ने सिर्फ एक गलत परंपरा की नींव रख दी थी, वह यह कि इस्लामी खिलाफत में लोकतंत्र को जो बुनियादी मकाम हासिल है उसे बदलकर हज़रत माविया(रज़ि.) ने अपने बेटे यज़ीद को मुसलमानों की राय और चुनाव किए बगैर अलोकतांत्रिक तरीके से खलीफा नामज़द कर दिया था जिसे हज़रत इमाम हुसैन की निगाहें दूरबीन और दूर रस ने भांप लिया कि खिलाफत की बुनियाद लोकतंत्र के बजाय तानाशाही में आने वाले समय में तब्दील हो जाएगी जो इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ है।
इस्लामी खिलाफत मानवता के लिए वरदान थी जिसकी मिसालों से इस्लामी खिलाफत का इतिहास भरा पड़ा है। तफसील में जाए बगैर सिर्फ हज़रत उमर (रज़ि.) खलीफा इस्लाम के शासनकाल में जब उनके एक गवर्नर के बेटे के असभ्य व्यवहार से इस उसूल पर चोट पड़ी तो उन्होंने गवर्नर और उसके बेटे के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए कहा :- " तुमने कब से लोगों को अपना गुलाम बना लिया, उन्हें तो उनकी मांओं ने आज़ाद पैदा किया था "??
इस्लामी खिलाफत का यह पहला उसूल था कि सारे मानव आज़ाद हैं, अल्लाह के अलावा किसी के गुलाम नहीं हैं। इस्लामी खिलाफत का दूसरा उसूल समस्त इंसानों की ज़रूरतों की पूर्ति यानी खाना, कपड़ा, रोजगार, दवा, इलाज, आवास, बिजली, पानी, जैसी बुनियादी आवश्यकताएं हुकूमत की ज़िम्मेदारी हैं। तीसरा उसूल तमाम नागरिकों को अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं को उभारने, बढ़ाने, उनका इस्तेमाल करने का समान अवसर मिले। शिक्षा के संबंध में सभी नागरिकों को चाहे शहरी हो या ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं मुफ्त सुविधा प्रदान की जाएगी। चौथा उसूल जो अति महत्वपूर्ण है, सरकार और शासन प्रणाली है। सरकार में उच्च नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्य पाए जाते हों। सरकार सब की हो और सब के लिए हो, सब के अधिकारों की सुरक्षा की जाए और मानव अधिकार का पूरा पालन किया जाए और सब के साथ इंसाफ किया जाए। जनता की इच्छा और उनके वोटों से निर्वाचित नेता निरंकुश और तानाशाह लीडर ना बन जाए और जो खुद को किसी के सामने जवाब देह ना समझे। शासन व्यवस्था ऐसी खुली हुई हो कि हज़रत उमर जैसे महान व्यक्तित्व और वक्त के खलीफा को उनके मिम्बर पर टोक देने में एक बुढ़िया को भी कोई डर या खौफ ना हो।
यह थे वह आला उसूल जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए बेहद ज़रूरी थे जिसे हज़रत इमाम हुसैन ने महसूस कर लिया था। चुनांचे इसी लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपने अपने पूरे खानदान को कुर्बान कर दिया परंतु पलट कर यज़िदी फौज पर हथियार नही उठाया केवल अपनी आत्मरक्षा बचाव करते रहे जिससे अहिंसा पैगाम इमाम हुसैन ने दुनिया को दिया अलोकतांत्रिक , ताकतों और तानाशाहों को रहती दुनिया तक पैगाम दे दिया कि जब-जब मानवता पर ज़ुल्म व जब्र और तानाशाही का कोड़ा बरसाया जाएगा, इस्लामी लोकतंत्र के अलंबरदार यानी लोकतंत्र के मूल्यों पर विश्वास रखने वाले हज़रत हुसैन की कुर्बानी से सबक लेकर इस ज़ुल्म और अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करेंगे।
आज के इस फिरौनी, नमरूदी दौर में जहां हर तरफ पूरी दुनिया में मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, इंसाफ का गला घोट कर रख दिया गया है, नफस-परस्त और दुनिया-परस्त हुक्मरान खुदा के सामने जवाबदेही के तसव्वुर से बेपरवाह होकर जुल्मों सितम की रविश पर कायम हैं, वहीं हज़रत इमाम हुसैन के नाम लेवा, उनकी तारीफ में ज़मीन और आसमान एक कर देने वाले इस शहादते हुसैन से लोकतंत्र और अहिंसा यानी "इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था" की बहाली के लिए अपना सरमाया, अपना वक्त, यहां तक कि अपनी सलाहियत को कुर्बान करने के लिए क्या तैयार हैं ? यह है वह हकीकी पैगाम जो हज़रत हुसैन ने रहती दुनिया तक आने वाले तमाम जम्हूरियत पसंद इंसानों को दे दिया है।
मुबीन खान
सेक्रेटरी इस्लामी मआशरा
जमात-ए-इस्लामी (छ.ग.)