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निशांत महेश त्रिपाठी का महत्वपूर्ण लेख-महिला समानता: दार्शनिक विचार एवं आधुनिक नारीवादी सिद्धांतो मर अमल जरूरी.

ByMedia Session

Aug 29, 2020

सयुंक्त राज्य अमेरिका में 26 अगस्त को महिला समानता दिवस मनाया गया. दरअसल, इसी दिन संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में 19वें संविधान संशोधन के जरिए महिलाओं को समानता का अधिकार दिया गया. वर्तमान में अनेक देशों में महिला समानता के बारे में चर्चाएं एवं उन्हें समानता दिलवाने की कोशिश हो रही है क्योंकि 21 वी शताब्दी में भी कई ऐसे देश है जहां महिलाओं की स्थिति दयनीय हैं. सयुंक्त राज्य अमेरिका जो विश्व में सबसे विकसित देशो के गिनती में आता है वहां के महिलाओं को भी मतदान का अधिकार पाने के लिये संघर्ष करना पड़ा था. सयुंक्त राज्य अमेरिका जो वर्ष 1775 में आजाद हो गया था. उनके देश के महिलाओं को मतदान का अधिकार वर्ष 1920 में दिया गया. इसके अतिरिक्त अरब देश की महिलाएं आज भी उन बुनियादी अधिकारों से वंचित है जीसकी विश्व की प्रत्येक महिलाएं हकदार है. सऊदी अरब की गिनती दुनिया के सबसे कट्टरपंथी देश के तौर पर होती है, जहां महिलाओं के लिए पाबंदियां बहुत ज्यादा और सख्त हैं लेकिन अब सऊदी अरेबिया की महिलाओं को धीरे धीरे वह बुनियादी अधिकार एवं स्वतंत्रता मिल रही है जो बिना किसी अपवाद के प्रत्येक स्त्री को मिलना ही चाहिए. सऊदी अरब क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान के सत्ता में आने के बाद से यहां महिलाओं को कई हक मिले हैं. दो साल पहले महिलाओं को फुटबॉल स्टेडियम में बैठकर मैच देखने की इजाजत मिली थी. वहीं महिलाओं को ड्रा‌इविंग की छूट भी पिछले साल जून में दी गई थी. 2020 तक 30 लाख महिलाओं को ड्राइविंग लाइसेंस दिए जाने का लक्ष्य है.

अगर आधुनिक समय में महिला के सम्मान, स्वास्थ्य, सुरक्षा, स्वतंत्रता, समानता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए वैचारिक आंदोलनों की बात की जाए तो अठारहवीं शताब्दी से हमें आंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके प्रमाण मिलते हैं. सबसे पहले पाश्चात्य देशो द्वारा नारीवादी एवं उनकी समस्याओं पर आंदोलन शुरू हुआ. विशेषकर मँरी वोल्स्टोन क्राफ्ट ने जोरदार ढंग से इस मुद्दे को उठाया था. वर्ष 1792 में लंदन से पहली बार प्रकाशित अपने आलेख ‘महिलाओं के अधिकारों का समर्थन’ में उन्होंने महिला-अधिकारों की पुरजोर हिमायत की थी. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होने पाश्चात्य देशों में महिलाओं के प्रति दुय्यम रवैया महसूस किया था. आज, अनेक नारीवादी एवं उनकी संगठना महिलाओं को उनके अधिकार तथा उन्हें समानता दिलाने के लिये कार्य कर रहे है क्योंकि महिलाएं अनेक समस्याओं से घिरी है.

नारीवाद यह शब्द सबसे पहले पाश्चात्य देशो में प्रयोग किया गया और वर्तमान में भारत में यह शब्द फेमिज्म (नारीवाद ) के नाम से प्रचलित है. जो व्यक्ति नारी के भलाई, अधिकार समानता एवं हितो के लिये चिंतन करता है और उनके लिये आवाज उठाता है उसे फेमिनिस्ट याने की नारीवादी कहते है.

जब नारीवाद शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इसके विभिन्न आयाम है मतलब नारीवाद को विभिन्न दृष्टिकोण से देखा जाता है. नारीवाद के प्रमुख आयामों में से नारीवादी दर्शन महत्वपूर्ण है जिसमें नारी कौन है ? नारी का सत्य क्या है ? नारीत्व क्या है ? नारी का समाज में क्या स्थान है तथा क्या होना चाहिए ? नर तथा नारी के बिच के संबध कैसे होने चाहिए ? इन तरह के प्रश्नो के हल ढूंढ़ने का प्रयास नारीवादी दार्शनिको द्वारा किया जाता हैं.
इसके अलावा नारी के अस्तित्वमूलक प्रश्नो में स्वयं नारी क्या अनुभव करती है इन तमाम बातो की चर्चा एवं जिक्र नारीवादी दर्शन या सिद्धांत में किया जाता है.

हालाँकि भारतीय चिंतन में कभी नारीवाद या नारीवादी जैसे शब्द नहीं थे क्योंकि भारतीय सभ्यता में नारी का दार्शनिक आधार है तथा दार्शनिक तौर पर नारी के नारीत्व, अस्मिता, गरिमा तथा समानता को भारतीय दर्शन, संस्कृति, सभ्यता में विशेष स्थान दिया गया है इसलिए भारत में नारीवाद अवधारणा की जरूरत महसूस नहीं हुयी. जबकि पाश्चात्य देशों में नारी को आधार विहीन व्यक्ति के रूप में छोड दिया गया था जीस वजह से नारीवाद अवधारणा का जन्म पाश्चात्य देश में हुआ और वहां से भारत में आया.

दरअसल, भारतीय सभ्यता में वैदिक काल में नारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया था किन्तु वैदिक काल के बाद धीरे धीरे स्त्रियों के स्थिति में गिरावट देखने को मिली और समाज पितृसत्ताक की तरफ अग्रसर होते गया.
भारतीय इतिहास में प्रत्येक सदी में महिलाएं किसी न किसी प्रथा से ग्रसित रही और समय के साथ साथ समाज प्रबोधन तथा धार्मिक सुधारवादियों द्वारा इन अन्यायकारक तथा अतार्किक प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाकर, प्रथाओं को समाप्त करवाया गया. जैसे की, 19 वे शताब्दी में उच्चवर्गीयों में सती प्रथा प्रचलित थी किन्तु राजा राम मोहन रॉय ने तर्कवाद एवं धार्मिक ग्रंथो का प्रमाण देकर इस प्रथा को लार्ड विलियम बेंटिक की मदत से बंद करवाया था. इसके अलावा, ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह के खिलाफ और पुनः विवाह के समर्थन में अभियान चलाकर लार्ड कैनिंग के जरिये इन्हे क़ानूनी तौर पर लागू करवाने के लिये अपना अतुलनीय योगदान दिया. जबकि सर सय्यद अहमद खान ने मुस्लिम समुदाय में चल रही बहु -विवाह पद्धत्ति तथा पर्दा प्रथा को दूर करने के लिये प्रयास किये थे.

इक्कीसवी सदी में भारतीय नारी ही नहीं अपितु कमोबेश दुनिया की अधिकांश महिलायें घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, बलात्कार जैसे घिनौनी समस्याओं से गुजर रही है इसके अतिरिक्त भारत में महिलाएं एसिड अटैक, ऑनर किलिंग, भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, ट्रैफिकिंग, जबरन देह व्यापार, असमान व्यवहार, अतार्किक रूढ़ि परम्परा इत्यादि परेशानियाों एवं बेड़ियों से वे जकड़ी हुयी है. इन समस्याओं को मिटाने के लिये और स्त्री पुरुष समानता प्रस्थापित करने के लिये आंतरराष्ट्रीय नारीवादी सिद्धांतो के साथ भारतीय दार्शनिक विचारों को अमल में लाना जरूरी है.क्योंकि भारतीय सभ्यता में नारी का दार्शनिक आधार होने के बावजूद वैदिक काल के बाद से लेकर अब तक भारत के दर्शनशास्त्र में नारी को जो स्थान दिया गया है वह केवल भारतीय दार्शनिक आधार तक सिमटकर ऱह गया तथा हकीकत में भारतीय नारी की स्थिति में गिरावट आते गयी इसलिए आज भारत में नारीवाद का मुद्दा चर्चा का विषय बन गया. जीस तरह पाश्चात्य देशो के नारियों ने घोर शोषण, उत्पीड़न, हिंसा एवं उपेक्षा सहन की है उसी प्रकार से भारत में भी इस तरह की खबरे आये दिन अखबार में पढ़ने को मिलती है. यदि भारतीय दर्शन की तरफ लौटकर उन दार्शनिक विचारधाराओं पर चिंतन करते हुए और समय के अनुसार बदलाव कर उन विचारों को व्यावहारिक तौर पर अमल में लाने की कोशिश की जायेगी तब भारतीय नारियों की स्थिति में जरूर सुधार लाया जा सकता है. क्योंकि भारतीय दर्शन में
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। 
जैसे विचार भारतीय नारी के लिये प्रकट किये गए है.

भारतीय सभ्यता में स्त्री पुरुष समानता का संदेश स्वयं ईश्वर द्वारा दिया गया है जिसका अस्तित्व सारी दुनिया अपने अपने धर्म ग्रंथो के अनुसार मानती है. हिन्दू धर्म में ईश्वर के प्रतीक अर्धनारीश्वर पुज्यनिय है जो स्त्री-पुरुष समानता को दर्शाते है. साथ ही यह संदेश भी मिलता है की स्त्री एवं पुरुष के बिना इस सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती. दोनों का इस सृष्टि में बराबर का योगदान एवं अधिकार है.भारतीय दर्शन में यह एक अनूठी चीज है तथा अनुकरणीय है की ईश्वरी शक्तियों की प्रतीक दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती है. कहने का तात्पर्य की भारतीय दर्शन में ही स्त्रियों को इतना महत्वपूर्ण स्थान एवं संदेश दिया है की पश्चिमी देशों के नारीवादी दृष्टिकोण एवं विचारों को अमल में लाये बगैर भी स्त्री -पुरुष समानता प्रस्थापित करने का विकल्प मौजूद है.

देश में पाश्चात्य सिद्धांतो के आधार पर महिला समानता लाने की कोशिश की जा रही है पाश्चात्य उदारवादी विचारकों का मानना है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं के साथ उसी प्रकार का समान व्यवहार किया जाए जैसा पुरुषों के साथ किया जाता है. जबकि देश में तथा – कथित नारीवादियों द्वारा आक्रमक होकर समानता की मांग की जाती है और पुरुषो को निचा दिखाकर नारीवाद की अवधारणा को सामने रखा जाता है. जबकि नारीवाद स्त्री-पुरुष के बिच जो असमानताएं है एवं कुछ वैचारिक कमियों तथा पुरुष प्रधानता की वजह से स्त्री पुरुष में जो अंतर है उसे कैसे कम किया जा सकता है उस बारे में चिंतन का विषय है. इस मामले में एक सक्षम नारीवादी नेतृत्व की जरूरत है ताकि सही ढ़ंग से बात रखी जा सके.

गौरतलब समाज में अक्सर देखा गया है की एक स्त्री ही दूसरे स्त्री को आगे बढने में अवरोध उत्पन्न करती है यह भी एक कारण है की हमारे देश में स्त्री का शोषण होता है. मिसाल के तौर पर हमारे देश में दहेज प्रथा के खिलाफ कानून होने के बावजूद चोरी छिपे यह प्रथा चलती है और जो परिवार दहेज लेता है उस परिवार में महिलाएं भी शामिल होती है किन्तु वे कभी अन्य महिला की तरफ से खड़ी नहीं दिखाई देती. ऐसी घटनाओं के पीछे मानसिकता से ज्यादा तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस के उत्तरकांड की यह चौपाई है कि ‘मोहे न नारि नारि के रूपा, पन्नगारि यह तत्त्व अनूपा। इस चौपाई के संदर्भ में जब एक महिला द्वारा महिला उत्पीड़न की बात की जाती है तो वह निराधार और निर्मूल नहीं प्रतीत होती. जब एक स्त्री दूसरे स्त्री की पीड़ा ही नहीं समझ सकती तो देश में स्त्री को शोषण मुक्त कैसे किया जा सकता है ?

कुछ नारीवादियों द्वारा जो समस्याएं रखी जाती है कभी कभी वह समस्याएं देश के प्रत्येक स्त्री की नहीं होती बल्कि वह समस्या विशिष्ट वर्गो के महिलाओं की होती है क्योंकि हमारे देश में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थितियां अलग अलग क्षेत्र में भिन्न प्रकार की है. जो शिक्षित राज्य है वहां महिलाओं की समस्याएं एवं स्थितियां भिन्न है जबकि जो राज्य पिछड़े है वहां की महिलाओं की समस्याएं एवं स्थिति भिन्न है. देश में महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता जैसी बाते समुदाय पर निर्भर होती है. देश में कई समुदाय ऐसे भी है जो अपनी समुदाय के महिलाओं के प्रति उदारवादी विचार रखते है और कुछ समुदाय ऐसे भी है जो अपने समुदाय के महिलाओं को ज्यादा स्वतंत्रता एवं समानता देना पसंद नहीं करते. देश में शहरी महिलाओं की स्थिति और ग्रामीण महिलाओं की स्थिति में काफी अंतर है और इनकी समस्याएं एवं आंकाक्षाएं भी एक दूसरे से अलग है और इन सब समस्याओं में तालमेल बिठाकर इस आंदोलन को समावेशक बनाना सबसे बडी चुनौती है. इन सबका एक ठोस उपाय है की देश के प्रत्येक महिला को शिक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि अशिक्षित महिला को अपने अधिकारों का बोध नहीं होता जीस वजह से उस अशिक्षित महिला को स्वतंत्रता, समानता, आत्म निर्भरता जैसी बातो से वे परिचित नहीं होती और अज्ञानता के चलते स्वयं अपने हक के लिये आवाज नहीं उठा पाती इसलिए जब देश के प्रत्येक महिला शिक्षित होंगी तब वह स्वयं यह निर्णय लेने सक्षम हो जाएँगी की उसके नजर में उसके लिये नारीवाद क्या है और वो असल में स्वयं से क्या आंकाक्षाएं रखती है ये सब समझ पाएंगी. स्त्री- पुरुष समानता प्रस्थापित करने के लिये स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण बदलकर उदारवादी विचार रखना चाहिए. पुरुष प्रधानता को बाजु में रखकर समानता का भाव मन में लाना चाहिए. इसके अतिरिक्त राजनैतिक, शैक्षणिक, सामाजिक, स्तर पर मौजूद कमियों को दूर करना जरूरी है. इसके अलावा सभी ने ईमानदारी से सवेंदनशील होकर महिलाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए और दार्शनिक विचारो को व्यवहार में लाना चाहिए तभी देश का महिला समानता का सपना सच हो पाएंगा.

निशांत महेश त्रिपाठी

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